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________________ चेतना-चैतन्य प्रकाश-शक्ति का उपयोग–व्यवहार प्रयोग द्विविध होता है, एक तो द्रव्यों की किंवा पर्याय विशेषों को अभिन्नता पूर्वक स्व-पर-सत्ता-सामान्य को ग्रहण करने वाला दृश्याकार-जो दर्शन कहलाता है और दूसरा द्रव्यों की किंवा पर्याय विशेषों की विभिन्नता पूर्वक स्व-पर-सत्ता-विशेष को ग्रहण करने वाला ज्ञेयाकारजो ज्ञान कहलाता है। समग्र चेतना की निर्विकल्पता के लिये इन दोनों में से जैसे दर्शन-चेतना निर्विकल्प है वैसे ही ज्ञान-चेतना का भी निर्विकल्प-रूप में परिणमन होना अनिवार्य है, और वह तभी सम्भव है जबकि स्वतत्त्व का ही ग्रहण हो जो कि केवल परमशुद्ध-निश्चयनय के ही अवलम्बन से होता है। ३. स्व-पर तत्त्व के परीक्षण के लिये नय-परिज्ञान आवश्यक है। अंश द्वारा अंशी का ज्ञान कराने वाला दृष्टिकोण नय कहलाता है। वचन के जितने विकल्प हैं उतने ही नय हैं, पर मुख्य रूप में उनकी दो श्रेणियां हैं-एक निश्चयनय श्रेणी और दूसरी व्यवहारनय श्रेणी । गुण पर्यायों की अभेदता पूर्वक पदार्थ के प्रायः स्वभाव एकत्व को बतलाने वाला दृष्टिकोण निश्चयनय कहलाता है, इसके परमशुद्ध-निश्चयनय विवक्षितैक देश-शुद्ध-निश्चयनय, शुद्ध-निश्चयनय, अशुद्ध निश्चयनय आदि अनेक भेद हैं। पर के निमित्त से होने वाले कार्य-व्यपदेश युक्त गुण-पर्यायों की भिन्नता पूर्वक पदार्थ को बतलाने वाला दृष्टिकोण व्यवहारनय कहलाता है; इसके अनुपचरित सद्भूत-व्यवहारनय, उपचरितसद्भूत-व्यवहारनय, अनुपचरित-असद्भूत-व्यवहारनय, उपचरित असद्भूत-व्यवहारनय आदि अनेक भेद हैं। निश्चयनय द्रव्याश्रित और स्वावलम्बी है जबकि व्यवहार नय पर्यायाश्रित और पराव. लम्बी हैं। व्यवहारनय षट् कारकों की भिन्नता बतलाता हुआ कर्ता, कर्म Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003815
Book TitleAnandghan Chovisi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSahajanand Maharaj, Bhanvarlal Nahta
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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