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रूप मुनि-गुणों द्वारा साक्षात् आत्मा में ही रम रहा हो। जिनका उपयोग आत्मा में नहीं, प्रत्युत इन्द्रिय विषयों में ही रम रहा हो
और साधु-स्वाँग मात्र की बाह्य-चेष्टा से ही यदि उन्हें मुनि मान लिया जाय, तब तो ऐसे इन्द्रियांरामी संसारी सभी प्राणी हैं और साधु-स्वाँग के बाह्य-अभिनय में तो नट भी प्रवीण है, पर वैसी कोरी नटबाजी से अध्यात्म-पथ में प्रवेश तक नहीं हो पाता। खास तौर से यदि देखा जाय तो आत्म-रमणता ही साधुता का प्राण है। और ऐसे जो सप्राण आत्मारामी सन्त हों, वे तो इन्द्रिय विषयों को देखने जानने की कामना तक से मुक्त केवल निष्कामी ही बने रहते हैं।
३. प्रचारक-आध्यात्म-सम्मत क्रिया का मुख्य लक्षण क्या है ?
सन्त आनन्दघनजी-स्वरूपानुसन्धान को स्थिर करके शुभाशुभ-कल्पना को रोकने वाली रत्नत्रयी-मूलक चेतना की वह अबंध संवर-परिणति ही अध्यात्म-क्रिया का मुख्य लक्षण है कि जिस परिणति से अपने आत्म-स्वरूप की अखण्ड रमणता सधती है और परिणाम में चतुर्गति का प्ररिभ्रमण मिटता है, अतः मुमुक्षु के लिये वही अंगीकार करने योग्य है ; किन्तु जिस क्रिया के करने पर बन्ध ही बढ़ता हो और परिणाम में आत्मा को फिर से चतुर्गति में जन्म धारण करना ही सधता हो, तो उसे अध्यात्म सम्मत क्रिया नहीं कहा जा सकता। वह तो आश्रव क्रिया ही है अतः मुमुक्षु के लिये हेय है ।
४. प्रचारक-भगवन् ! हम भी अपने को अध्यात्मी समझते हैं। हमारे यहाँ आध्यात्मिक-साहित्य का भी प्रचुर संग्रह है और उसे बढ़ाते रहते हैं। अध्यात्म-विषय का पठन-पाठन, चर्चा और लेखप्रवचन आदि द्वारा प्रचार भी करते हैं, इतने पर भी हमें अपने दीपक के तले अन्धेरा ही नजर आता है। कृपया इस अन्धेरे से मुक्त होने के लिये हमें कुछ मार्ग-दर्शन कराइये। ६२]
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