________________
११
- १. खरतरगच्छ के आदि पुरुष श्री वर्द्धमानसूरिजी के शिष्य श्री जिनेश्वरसरिजी के पट्टधर आचार्यों के नाम का पूर्वपद 'जिन' रूढ़ हो गया है। इसी प्रकार इनके शिष्य सुप्रसिद्ध संवेगरंगशाला-निर्माता श्री जिनचन्द्रसूरिजी से चतुर्थ पट्टधर का यही नाम रखे जाने की प्रणाली रूढ़ हो गई है।
२. युगप्रधानाचार्य गुर्वावली से स्पष्ट है कि उस समय सामान्य आचार्यपद के समय, इसी प्रकार उपाध्याय, वाचनाचार्य पदों के एवं साध्वियों के महत्तरा पद प्रदान के समय भी कभी-कभी नाम परिवर्तन अर्थात् नवीन नामकरण होता था।
३. तपागच्छादि में गुरु-शिष्य का नामान्त पद एक ही देखा जाता है, परन्तु खरतरगच्छ में यह परिपाटी नहीं है। गुरु का जो नामान्त पद होगा, वही पद शिष्य के लिए नहीं रखे जाने की एक विशेष परिपाटी है। इसमें क्वचित् शांतिहर्ष के शिष्य जिनहर्ष गणि का नाम अपवाद रूप में कहा जा सकता है । भिन्न नन्दि प्रथा अर्थात् गुरु के नामान्त पद से भिन्न होने वाले मुनि ने अपने ग्रन्थादि में यदि गच्छ का उल्लेख नहीं किया हो तो उसके खरतरगच्छीय होने की विशेष सम्भावना की जा सकती है।
४. साध्वियों के नामान्त पद के लिए नं. ३ वाली बात न होकर गुरु-शिष्या का नामान्त पद एक ही देखा गया है ।
५. सब मुनियों की दीक्षा पट्टधर गच्छनायक आचार्य के हाथ से ही होती थी। क्वचित् दूरदेश आदि में स्थित होने आदि विशेष कारण से अन्य आचार्य महाराज, उपाध्यायों आदि विशिष्ट पद-स्थित गीतार्थों को आज्ञा देते या वासक्षेप प्रेषण करते, तब अन्य भी दीक्षा दे सकते थे। नव दीक्षित मुनियों का नामकरण गच्छनायक आचार्य द्वारा स्थापित नन्दि (नामान्त पद) के अनुसार ही होता था।
. उपरिवणित खरतरगच्छ की ८४ नन्दियों में सर्वाधिक नन्दियों को स्थापना अकबर प्रति बोधक युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरिजी महाराज ने की थी। उनके द्वारा स्थापित ४४ नन्दियों की सूची हमने अपने
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org