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अपनीयत
औषधि और मंत्रों के चमत्कारों से जन मानस शीघ्र प्रभावित होता है । एतद् विषयक विधिवेत्ताओं के दर्शन सर्व सुलभ नहीं, महान दुर्लभ हैं। मंत्र और औषधियों के विधि-विधानों की गोपनीयता मानने वाले युग में श्री दादा गुरुदेव ने सर्वजन हिताय मंत्रौषधिभित 'स्तंभनक पार्श्वनाथ स्तोत्र' की रचना की।
. स्तोत्रान्तर्गत पचीसवीं गाथा का टिप्पण कहता है-"श्वेत वांझिकंकोडीमूल एक वर्णी गाइना दूध सूपियइ तउ वंध्याइ गर्भ धरइ इम आसगंधि पुण ऋतुस्नान पूठई।"
___ तीसवीं गाथा का टिप्पण पढ़िए-ॐ क्रो स्वाहाः ।। ए मंत्र आदित्य वारइं भूर्यपत्र लिखी डावा हाथ नी अंगुली वींटी जीवा सूत्र सू वींटी करी पिहरायइ तउ सर्वत्र जय हुइ । रामति जीपइ । पूर्वला मंत्र सू अमृतन उं ७ वार गुणीयइ टीलउ प्रभाति कीजियइ सर्वजन मोहीयइ वस्य थाइ ।
विश्वास और सविधि सेवना आराधना के बिना औषधि, मंत्र और प्रभु की भक्ति ने किसे भी लाभ पहुँचाया हो, ऐसा ज्ञात नहीं है ।
मंत्र और औषधि विज्ञान के साथ धर्म और भक्ति को विलुप्त होने के दुर्दिनों का कहीं सामना न करना पड़े, अतः पुरातन पद्धति पर इस छोटी-सी नव्य कृति का निर्माण किया है।
बीकानेर २१-७-७४
नेमीचन्द पुगलिया
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