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गणधर गौतम : परिशीलन
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सहस्रों विमानों से नीलगगन ज्योतिर्मय हो रहा है । देव विमानों को यज्ञ-मण्डप की ओर अग्रसर होते देख उपस्थित अपार जन-समूह यज्ञ का माहात्म्य समझ कर आनन्द विभोर हो उठा।
प्रमुख यज्ञाचार्य इन्द्रभूति गौतम अत्यन्त प्रमुदित हुए और घनगम्भीर गर्वोन्नत स्वर में यजमान सोमिल को सम्बोधित कर कहने लगे-“देखो विप्रवर ! यज्ञ और वेद मन्त्रों का प्रभाव देखो ! सत्युग का दृश्य साकार हो गया है ! अपना-अपना हविर्भाग पुरोडाश ग्रहण करने इन्द्रादि देव सशरीर तुम्हारे यज्ञ में उपस्थित हो रहे हैं । तुम्हारा मनोरथ सफल हो गया है ।" और, स्वयं शतगुणित उत्साह से प्रमुदित होकर और अधिक उच्च स्वरों से वेद मंत्रोच्चारण करते हये आहुतियां देने लगे। सहस्रों कण्ठों से एक साथ नि:सृत मन्त्रध्वनि और स्वाहा के तुमुल घोष से आकाश गूंज उठा।
परन्तु, 'यह क्या ! ये सारे देव-विमान तो यहाँ उतरने चाहिए थे, वे तो इस यज्ञ-मण्डप को लांघ कर नगर के बाहर जा रहे हैं ! क्या ये देवगण मन्त्रों के आकर्षण से यहाँ नहीं आ रहे हैं ! क्या यज्ञ का प्रभाव इन्हें आकृष्ट नहीं कर रहा है ।' सोचते-सोचते हो न केवल इन्द्रभूति का ही अपितु सभी याज्ञिकों का गर्वस्मित मुख श्यामल हो गया। नजरें नीची हो गईं । पाहूति देते हाथ स्तम्भित से हो गए। मन्त्र-ध्वनि शिथिल पड़ गई । नीची गर्दन कर इन्द्रभूति मन ही मन सोचने लगे । 'पर, ये देवगण जा किसके पास रहे हैं ?' सोच ही रहे थे कि देवों का तुमुल-घोष कर्णकुहरों में पहुँचा कि-"चलो,
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