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________________ 72/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन कथा की लोकप्रियता: आरामशोभा कथा जैन कथाकारों को बहुत प्रिटा रही है। अत: प्राकृत, सस्कृत एव गुजराती भाषाओं में इसके कई संस्करण प्राप्त होते हैं। उनकी संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत की जा रही प्राकृत संस्करण : (1) अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार आचार्य श्री प्रद्युम्नसूरिकृत मूलशुद्धिप्रकरण पर श्री देवचन्द्रसूरि द्वारा लिखित वृत्ति में सर्वप्रथम तीर्थकर भक्ति के उदाहरण के रूप में आरामशोभा कथा प्राकृत गद्य एवं पद्य में प्रस्तुत की गयी है। आरामशोभा के पुनः पटरानी पद प्राप्त करने की कथा तक प्राकृत गद्य एवं पद्य का प्रयोग किया गया है एवं उसके बाद पूर्व जन्म की कथा केवल गाथाओं में कही गयी है। कथा इस प्रकार प्रारम्भ होती है तत्य य परिस्समकिलंतनर-नारी हिययं व बहुमासं, महामुणिव्व सुसंवर, कामिणीयणसीसंव ससीमंतयं अत्थि थलासयं नाम महागामं । कथा के अन्त में कहा गया है मण्यत-सुरताई कमेण सिवसंपयं लहिस्संति। एवं जिणभत्तीए अणण्ण सरिसं फलं होइ।। 201।। यह मूलशूद्धिप्रकरणवृत्ति ई. सन् 1089-90 में रची गयी थी। अतः आरामशोभाकथा का अब तक ज्ञात यह प्राचीन स्प है। (2) प्राकृत की 320 गाथाओं में आरामशोभाकथा की रचना किसी अज्ञात कवि ने की है। उसी का परिचय इस लेख में दिया जा रहा है। यह रचना भाषा की दृष्टि से 12 वीं शताब्दी की होनी चाहिए। इसका प्रारम्भ इस प्रकार हुआ है झविज्ज मूलभूअं दुवारभूअं पइव्व निहिभूअं। आहारभायणमिमं सम्मत्तं घरणधमस्स।। 1।। इह सम्मं सम्मत्तं जो समणो सावगो धरइ हिअए। अपुन सो इडिद लहेइं आरामसोहु ब्वं ।। 4 ।। कारामसोहवुत्ता कह समत्ता तए सिरी लदा। इअपुट्टो अ जिणंदो आणदेणं कहइ एअं।।5।। यहाँ यह स्पष्ट है कि सम्यक्त्व का महत्व प्रतिपादन कर उसके उदाहरण में आरामशोभा की कथा कही गयी है। पाँचवीं गाथा में आणदेणं शब्द विचारणीय है। ऐसा प्रतीत होता है कि आनन्द नामक व्यक्ति द्वारा पूछे जाने पर जिनेन्द्र ने इस कथा को कहा है। यह आनन्द श्रावक है अथवा साधु यह शोध का विषय है। इस ग्रन्थ के अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है। केवल इतना कहा गया है कि 'हे भव्य जीव आरामशोभा की तरह आप भी सम्यक्त्व में अच्छी तरह प्रयत्न करें, जिससे कि शीघ्र ही शिवसुख को प्राप्त करे:-' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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