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________________ अष्टम आरामसोहाकहा (पद्य): एक परिचय प्राकृत कथा साहित्य में आरामशोभाकथा एक महत्वपूर्ण लौकिक कथा है। जिनपूजा के महात्म्य को प्रतिपादित करने के उद्देश्य से यह कथा उदाहरण के रूप में कही गयी है। प्राकृत, संस्कृत, गुजराती एवं हिन्दी भाषा में आरामशोभाकथा को कई कथाकारों ने प्रस्तुत किया है, किन्तु मूल प्राकृत कथा अभी तक स्वतन्त्र रूप से प्रकाशित नहीं हो सकी है। इस अप्रकाशित आरामसोहाकहा की पाण्डुलिपि मुझे लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति मंदिर, अहमदाबाद, के ग्रन्थभण्डार का सर्वेक्षण करते समय प्राप्त हुई थी। प्राकृत गाथाओं में निबद्ध इस कथा की यह अभी तक उपलब्ध एकमात्र पाण्डुलिपि है। यद्यपि इस कथा की अन्य प्रतियों के विभिन्न ग्रन्थभण्डारों में प्राप्त होने के संकेत है किन्तु अभी वे उपलब्ध नहीं हो सकी हैं। आरामसोहाकहा की इस पाण्डुलिपि में कुल 10 पन्ने हैं, जो दोनों ओर लिखे हैं। इसमें कुल 320 प्राकृत गाथाएं हैं। किन्तु आदि, अन्त में कोई प्रशस्ति नहीं है। अत: रचनाकार, लिपिकार आदि के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञात नहीं होता है। प्राकृत साहित्य के अन्य किसी ग्रन्थ में भी प्राकृत पद्यों में रचित आरामसोहाकहा एवं उसके कर्ता के सम्बन्ध में कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है। अतः अभी इस रचना को अज्ञातकर्तृक ही मानना होगा। आरामसोहाकहा की परम्परा एवं अन्य पाण्डुलिपियों के सम्बन्ध में विचार करने के पूर्व इस कथा को संक्षेप में प्रस्तुत करना उपयोगी होगा। कथावस्तु : जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुशात नामक देश है। वहाँ बलासक नामक ग्राम में अग्निशर्मा नामक ब्राह्मण रहता था। उसके ज्वलनशिखा नामक पत्नी थी। उनके विद्यु त्प्रभा नामकी एक पुत्री थी। जब वह आठ वर्ष की बालिका थी तभी किसी रोग से पीड़ित होकर उसकी मा का देहावसान हो गया। तब घर का सारा काम विद्युत्प्रभा के ऊपर आ पड़ा। गायों को चराने, घर का काम करने और पिता की सेवा-टहल करने में वह बहुत थक जाती थी। अतः एक दिन उसने पिता से कह दिया कि वह दूसरी शादी करके पत्नी ले आवे। इससे उसे घर के कामों से छुटकारा तो मिलेगा। किन्तु विद्युत्प्रभा की जो सौतेली मा आयी वह इतनी आलसी और कुटिल थी कि विद्युत्प्रभा को पहले जैसा ही घर-बाहर के कार्यों में अकेले जुटना पड़ता था। इसे वह अपने कर्मों का फल मानती हुई सहन करने लगी। एक बार विद्युत्प्रभा जब गायों को चरा रही थी तो वहाँ उसने एक साप रूपी देवता की प्राण-रक्षा की। इससे प्रसन्न होकर उस नागदेवता ने उसे वरदान दिया कि उसके सिर पर एक हरा-भरा कुंज ( आराम ) सदैव बना रहेगा, जिससे उसे कभी धूप नहीं लगेगी। यह कुज आवश्यकतानुसार छोटा-बड़ा होता रहता था। एकदिन पाटलीपुत्र के राजा जितशत्रु ने विद्युत्प्रभा Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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