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हरिभद्रसूरि की प्रतीक कथाएँ/61
कर उन्हें बाहर फेंक दिया। संझली बहु ने ससुर का प्रसाद समझकर उन्हें छील कर खा लिया। मेझली बहू ने उन दानों को कपड़े में बांधकर पेटिका में सुरक्षित रख दिया। किन्तु छोटी बहू ने उन धान के दानों को अपने पीहर में भेजकर उनकी खेती करवा दी। फसल आने पर जितने दाने पैदा हुए उन्हें फिर जमीन में बो दिया। इस प्रकार पाँच वर्ष तक खेती करने पर वे पाँच दाने कई गाड़ियों में भरने लायक हो गये।
धन्य सेठ ने जब पाँच वर्ष बाद अपनी बहुओं से उन पाँच धान के दानों को मांगा तो उसे सब वृतान्त का पता चला। उसने छोटी बहू को घर की मालकिन बनाकर बड़ी को झाडू लगाने का काम, मझली को रसोई का काम एवं संझली बहू को भण्डार का काम सौंप दिया।
कथाकार इस कथा के प्रतीकों को स्पष्ट करते हुए कहता है कि धन्य सेठ गुरु का प्रतीक है एवं चारों बहुएं चार प्रकार के साधकों की प्रतीक। पाँच धान के दाने पांच व्रतों के समान हैं, जो इन व्रतों की रक्षा कर उन्हें उत्तरोत्तर बढ़ाता है वही श्रेष्ठ पद प्राप्त करता है।25
हरिभद्र के प्राकृत कथा साहित्य में प्रयुक्त प्रतीकों एवं प्रतीक कथाओं का यहाँ मात्र दिग्दर्शन हुआ है। यदि उनके पूरे साहित्य में से प्रतीकों को एकत्र किया जाय तथा उनका तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाए तो भारतीय कथा साहित्य के कई पक्ष उजागर हो सकते हैं। धर्म और दर्शन को समझने की एक नई दृष्टि जाग्रत हो सकती है।
संदर्भ
1. शास्त्री, नैमिचन्द्र, हरिभद्र के प्राकृत कथा-साहित्य का आलोचनात्मक परिशीलन,वैशाली, 1965 2. द्रष्टव्यः जैन, प्रेम सुमन, "पालि-प्राकृत कथाओं में प्रयुक्त अभिप्राय" नामक लेख, राजस्थान भारती,
बीकानेर, 1969. 3. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, छठा अध्ययन 4. समराइच्चकहा, सम्पा-जैकोबी, प्र. एशियातिक सोसाइटी बंगाल, कलकत्ता, , 1926, भव 2,
पृ.117 5. आचारांगसूत्र, अ.6,उ. 6. मज्झिम निकाय, भाग 3, बालपण्डितसुत्त, पृ. 239-40 7. सूत्रकृतांगसूत्र द्वितीय श्रुत.प्र.अ., सूत्र 638-44 8. द्रष्टव्य, जैन, प्रेमसुमन, " आगम कथा-साहित्य मीमांसा" धर्म-कथानुयोग भाग 2 की भूमिका, पृ. 14 9. समराइच्चकहा, जकोबी भव 2 पृ. 110-114 10. वसुदेवहिण्डी, प्रथम खण्ड, पृ. 8 11. जहा सो पुरिसो तहा संसारी जीवो, जहा वण-हत्थी तहा मच्चू .....जहा महुयरा तहा आगंतुगा
सरीरसगया य वाही। 12. द्रष्टव्य, इसी पुस्तक में अध्याय तेरह। 13. समराइच्चकहा, सम्पा-जैकोबी, भव 3, पृ.134, 14. वही, भव 2, पृ. 703, 15. जैन, जगदीशचन्द्र, प्राकृत साहित्य का इतिहास, द्वितीय संस्करण 1985 पृ. 344 16. धूर्ताख्यान, सम्पा. ए.एन. उपाध्ये, बम्बई, 1945, 5वां आख्यान 17. दशवैकालिकसूत्र हरिभद्रवृत्ति, मनसुखलाल महावीर प्रेस, बम्बई पिण्डवाड़ा से वि.सं.2037 में पुनः
प्रकाशित 18. उपदेशपद, शाह लालचन्द नन्द लाल, बड़ौदा, उपदेशपद मूल एवं गुजराती अनुवाद, जैन धर्म
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