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________________ पंचम आचारांग व्याख्याओं की कथाएं आचारांगसूत्र अर्धमागधी साहित्य का आधारभूत ग्रन्थ है। इसमें जीवन के मूलभूत सत्यों का उद्घाटन एक आत्मानुभवी साधक द्वारा किया गया है। अतः यह अध्यात्मविद्या का, आत्मा-जिज्ञासा का आदि ग्रन्थ कहा जा सकता है, जिसका धरातल पूर्ण अहिंसक है। समता और संयम द्वारा अहिंसक विश्व का निर्माण करना, उसकी प्रेरणा देना इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य है। इसी परिवेश में दर्शन के विभिन्न प्रश्न यहाँ समाधित हुए हैं। उनके स्पष्टीकरण के लिए आचारांग पर नियुक्ति, चूर्णि, टीका, वृत्ति आदि कई व्याख्यात्मक ग्रन्थ भी जैन दार्शनिक आचार्यों ने लिखे हैं। इस व्याख्यात्मक साहित्य में कई मनोहर दृष्टान्तों और कथाओं द्वरा आचारांग के विषय को संरल और सुबोध बनाया गया है। उन कथाओं को संकलित कर उनके प्रतिपाद्य और वैशिष्ट्य को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयत्न है। द्वितीय भद्रबाहु ने सं.562 (505 ई.) के लगभग आगमों पर नियुक्तियां लिखी हैं। अतः उनके द्वारा लिखित आचारांग नियुक्ति का समय 5-6 वीं शताब्दी माना जा सकता है। आचारांग नियुक्ति में कुल 386 प्राकृत गाथाएं हैं। आंचारांग के दोनों श्रुतस्कन्धों पर इनसे प्रकाश पड़ता है। विषय को समझाने के लिए इस नियुक्ति में कुछ दृष्टान्त, उदाहरण एवं कथाएं भी संक्षेप में प्रस्तुत की गयी है। थोड़े शब्दों में सार की बात कहना इस नियुक्ति की विशेषता है। लोकसार नामक अध्ययन का विषय प्रतिपादन करते समय कहा गया है कि सम्पूर्ण लोक का सार धर्म है। धर्म का सार ज्ञान है। ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण है लोगस्स सार धम्मो धम्मपि य नाणसारियं विति। नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं। - आ.नि.गा. 245 आचारांगसूत्र के विभिन्न संस्करणों से भी नियुक्ति का महत्व स्पष्ट होता है। आचारांग के विषय को चूर्णि से और अधिक स्पष्ट किया गया है। चूर्णिकारों में जिनदासगणि महत्तर का नाम प्रसिद्ध है। इनका समय आचार्य हरिभद्र के पूर्व लगभग 650-750 ई. के बीच माना जाता है। आनन्दसागरसूरि के मतानुसार आचारांग चूर्णि के कर्ता जिनदासगणि महत्तर है। यद्यपि परम्परा से जिनदासगणि की चूर्णियों में आचारांग का उल्लेख नहीं है। आचारांगचूर्णि प्राकृत प्रधान है। इसमें प्रसंगानुसार संस्कृत के श्लोक भी उद्धृत किये गए हैं। किन्तु सन्दर्भ किसी उद्धरण का नहीं दिया गया है। विषय के प्रतिपादन में कुछ कथाएं संक्षेप में प्रस्तुत की गयी है। इसका प्रकाशन रतलाम से हुआ है। आचारांग पर लिखी गयी नियुक्ति के विषय को 9-10 वीं शताब्दी के विद्वान् शीलाचार्य ने अपनी आचारांगशीलांकटीका में और अधिक स्पष्ट किया है। शीलाचार्य तत्वादित्य व शीलांक के नाम से भी प्रसिद्ध है। इनकी वर्तमान में आचारांग और सूत्रकृतांग पर दो टीकाएं ही उपलब्ध है, जबकि इन्हें नौ अंगों पर टीका लिखने वाला कहा गया है। आचारांग की टीका आचारांग वृत्ति या विवरण के नाम से Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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