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________________ 30 / प्राकृत कथा - साहित्य परिशीलन मेघकुमार की कथा में अंकित यह प्रासाद वर्णन द्रष्टव्य है - अब्भुग्गयभूसियपहसिए विव मणि-कणग- रयणभत्ति चित्ते वाउयवियज- वेजयंती-पडागछत्ताइछत्तकलिए तुंगे गगणतल-मभिलंघणमाणसिहरे जालंतर - रयणपंजरुम्मिलिएव्व मणि -! कणग भियाए वियसिय- सतवत्त- पुण्डरीए तिलय- रयणद्ध चंदच्चिए नाणामणि- मय- दामालंकिए अंतो बहिं च सण्हे तवणिज्ज - रुइल-वालुया पत्थरे मुहफासे सस्सिरीयरूवे पासाइए - जावपडिवे । - ध. क. श्रमणकथा, मूल, पृ. 78 उत्प्रेक्षाओं का इसमें सटीक प्रयोग हुआ है। इसी प्रकार धन्य मुनि की तपश्चर्या के वर्णन में भी काव्यत्व संजोया हुआ है । कठोर तपश्चर्या से धन्यमुनि का शरीर इतना सूख गया था कि उनकी पसलियों को रुद्राक्ष की माला के मनकों की तरह गिना जा सकता था, उनके वक्षस्थल की हड्डियाँ गंगा की तरंगों की तरह स्पष्ट दिखायी देती थीं। सूखे सर्प की तरह भुजाएं एवं घोड़े की लगाम की तरह कॉंपने वाले उनके अग्रहस्त थे तथा कम्पन वातरोग के रोगी की तरह उनका सिर कांपता रहता था । यथा अक्खसुत्तमाला ति व गणेज्जमाणेहि पिट्टकरंडगसंधीहं, गंगातरगंभूएणं उदकडगदेस-भाएणं, सुक्कसप्पसमाणाहिं बाहाहिं, सिढिल-कडाली विवलंबतेहि य अग्गहत्थेहिं, कंपणवाइओ विव वेवमाणीए सीसघडीए । - ध. क. श्रमणकथा, पृ. 102 पैरा. 412 इन कथाओं में उपमाओं का बहुत प्रयोग हुआ है। ऋषभदेव के मुनिरूप का वर्णन बहुत ही काव्यात्मक है। उसमें 39 उपमाएँ दी गयी हैं। यथा- शुद्ध सोने की तरह रूप वाले, पृथ्वी की तरह सब स्पर्शो को सहने वाले, हाथी की तरह वीर, आकाश की तरह निरालम्ब, हवा की तरह निर्दन्द्र आदि । 13 इन कथाओं के गद्य में जितना काव्य तत्व है, उतना ही पद्य-भाग भी काव्यात्मक है। उत्तराध्ययनसूत्र की कथाएँ पद्य में ही वर्णित हैं। उसमें अनेक अलंकारों का प्रयोग हुआ है। कुछ उपमाएं एवं दृष्टान्त प्रस्तुत हैं 15 है। 14 उपमाएँ आसीविसोवमा (9.53 ) जह सीहो व मियं गहाय (13.22 ) पंखा विहूणो व्व जह पक्खी 14.30) विवन्तसारो वणिओ व्व पोए (14.30) गुरुओ लोह भारोव्व (19.35 ) सत्यं जहा परमातिक्ख (20.20 ) दृष्टान्त दावाग्नि का दृष्टान्त 14.42 ) पक्षी का दृष्टान्त 14.46) Jain Educationa International मृग (19.77) गोपाल (22.45) पाथेय (19.18) जलता हुआ घर (19.22 ) तीन वणिक (7.14) सिरे चूडामणी जहा (22.10 ) इसी तरह की उपमाएँ आदि यदि सभी कथाओं में एकत्र कर अनका तुलनात्मक अध्ययन या जाय तो भारतीय काव्य-शास्त्र के इतिहास के लिए कई नए उपमान एवं बिम्ब प्राप्त हो कते हैं। For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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