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________________ तृतीय कथाओं में सांस्कृतिक धरोहर जैन आगमों में उपलब्ध उपर्युक्त सभी प्रकार की कथाओं के अवलोकन से ज्ञात होता है कि किसी बात को समझने के लिए कथा कान्ता सम्मत पद्धति है। इसीलिए छोटी-छोटी कथाएँ कई गहरी बातें कह जाती हैं । आगमों के सिद्धान्त के गूढ़ विषयों को समझाने के लिए प्रतीक, द्रष्टान्त, रूपक तथा कथा का सहारा लिया गया है। उपमानों, प्रतीकों आदि से कथा का विकास होने की परम्परा वेदों, महाभारत एवं बौद्ध साहित्य के ग्रन्थों में भी रही है। किन्तु जैन साहित्य ने इसमें विशेष रुचि ली है । ' आगमिक कथाओं का विकास मनोवैज्ञानिक ढंग से हुआ है। कथा का विकास का प्रथम स्तर असम्भव से दुर्लभ की ओर जाने का है। आगम कथा कहती है कि संसार में रहते हुए मुक्ति का अनुभव असम्भव है। इससे मुक्ति के प्रति उत्कण्ठा जागृत होती है। तक कथा श्रोता पूछता है कि क्या सचमुच संसारी को मुक्ति नहीं है ? इसके उत्तर में कथावाचक कहता है- 'नहीं, उस व्यक्ति (तीर्थंकर) जैसे कोई तप करे तो उसे मुक्ति का अनुभव हो सकता है।' इससे मुक्ति असम्भव से दुर्लभ की कोटि में आ जाती है। यह जिनों का आदर्शमय जीवन प्रस्तुत करने की भूमिका है। इसके उपरान्त अपूर्व वैभव का त्याग, कठिन व्रतों का पालन, तपश्चर्या, ध्यान, योग द्वारा केवलज्ञान की प्राप्ति की कथा मुक्ति के मार्ग को दुर्लभ से संभव की कोटि में लाती है। यह कथा के विकास की दूसरी अवस्था है। इसे मुनिधर्म विवेचन के लिए धरातल की संज्ञा दी जा सकती है । मुक्ति तपश्चर्या से सम्भव है, यह बात समझ में आने के बाद उस तपश्चर्या को सम्भव से सुलभ बनाने के लिए और कथाएं कही जाती हैं। नैतिक आचरण, श्रावकधर्म, दैनिक अनुष्ठान, कर्म-सिद्धान्त आदि की कथाएँ मुक्ति को सम्भव से सुलभ बनाकर उसमें जन-सामान्य की रुचि उत्पन्न कर देती हैं। इसे कथा के विकास की तीसरी अवस्था कह सकते हैं। कथा के विकास की चौथी अवस्था प्रतिपाद्य को सुलभ से अनुकरणीय बनाने की प्रवृत्ति से सम्बन्धित है। इस धरातल पर कथाकार कहता है कि तुम देखो, उस श्रावक ने ऐसा- ऐसा किया और उसका यह फल पाया। तुम यदि ऐसा करोगे तो तुम्हें भी वह फल मिलेगा। जैन आगमों की अधिकांश कथाएँ इसी कोटि की हैं। इस विकास क्रम में अन्य कथा साहित्य एवं समकालीन जन-जीवन ने भी प्रभाव डाला है। आगमकालीन कथाओं की प्रवृत्तियों के विश्लेषण के सम्बन्ध में डा. ए. एन. उपाध्ये का यह कथान ठीक ही प्रतीत होता है- "आरम्भ में, जो मात्र उपमाएँ थीं, उनको बाद में व्यापक रूप देने और धार्मिक मतावलम्बियों के लाभार्थ उनसे उपदेश ग्रहण करने के निमित्त उन्हें कथात्मक रूप प्रदान किया गया है। इन्हीं आधारों पर उपदेशप्रधान कथाएँ वर्णात्मक रूप में या जीवन्त वार्ताओं के रूप में पल्लवित की गयी हैं। " 1 अतः आगमिक कथाओं की प्रमुख विशेषता उनकी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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