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________________ कथानक तरह-तरह के / 17 महाभारत की उस घटना से प्रभावित है, जिसमें कस द्वारा उसके पुत्रों का हरण कर उनका वध किया जाता है। जैन कथा में वध की घटना को महत्व नहीं दिया गया। पूर्व- जीवन के वैरी द्वारा मुनि-जीवन में उपसर्ग किये जाने की घटना कई प्राकृत कथाओं में प्राप्त है। पार्श्वनाथ के जीवन के साथ भी कमठ का उपसर्ग जुड़ा हुआ है। किन्तु कल्पसूत्र में इसका उल्लेख नहीं है, बाद के ग्रन्थों में है। अवन्तिसुकुमाना नामक कथा में सुकुमाल मुनि के साथ उसके पूर्वजन्म की भाभी ने सियारनी के रूप में घोर उपसर्ग उपस्थित किया है। गजसुकमाल के उपसर्ग की घटना का यह विकास प्रतीत होता है। 48 थावच्चापुत्र की कथा के दो उद्देश्य प्रतीत होते हैं। प्रथम तो इसमें यह घोषित किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति घर-वार छोड़ कर दीक्षा लेता है तो श्रीकृष्ण उसके परिवार का भरण-पोषण करेंगे। यह बात अपने आप में बड़ी महत्वपूर्ण है। राजा का धर्म के प्रचार के लिए इससे बड़ा योगदान क्या होगा ? इस कथा में दूसरी बात सुदर्शन के शौचमूलक धर्म की समीक्षा प्रस्तुत करना है। ऐसी कथाओं से जैन धर्म के प्रति रुझान पैदा करने का प्रयत्य किया गया है। उत्तराध्ययनसूत्र (22 अ ) में वर्णित रथनेमि - राजीमती कथा अरिष्टनेमि के जीवन का महत्वपूर्ण अंग है। यद्यपि यह कथा अत्यन्त संक्षिप्त शैली में कही गयी है, किन्तु इसका सम्प्रेषण तीव्र है। इस कथा में निम्न उद्देश्य स्पष्ट हैं 1. अरिष्टनेमि को पशुओं के प्रति अपार करुणा को प्रकट करना । माँसाहार का प्रकारान्तर से निषेध । 2. अरिष्टनेमि की वैराग्य भावना एवं अनासक्ति को प्रकट करना । 3. राजीमती का भावी पति के प्रति प्रेम एवं अटूट सम्बन्ध स्थापित करना । प्रकारान्तर से शीलव्रत को दृढ़ करना । 4. रथनेमि को ब्रह्मचर्य भाव से च्युत होने की स्थिति में राजीमती द्वारा उसे प्रतिबोधन पुनः श्रमणचर्या में दृढ़ करना । देकर इस कथानक का परवर्ती साहित्य में पर्याप्त विकास हुआ है। उसमें श्रीकृष्ण की भूमिका महत्वपूर्ण है 49 किन्तु आगम ग्रन्थ के इस कथानक में श्रीकृष्ण का नामोल्लेख भी नहीं है और न ही अरिष्टनेमि की किसी किया में उनके सहयोग का उल्लेख है । जितशत्रु राजा और सुबुद्धि मन्त्री की कथा स्पष्टतः उपदेश कथा है। कथाकर को यहाँ जैन दर्शन की दृष्टि से वस्तु के नानात्मक रूप का प्रतिपादन करना था । सम्यक्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि में अन्तर को स्पष्ट करना है। इस कथा में प्रकारान्तर से यह भी कहा गया है कि जिस प्रकार मन्त्री ने अशुद्ध जल को विशेष शोधन की प्रक्रिया द्वारा शुद्ध जल बना दिया उसी प्रकार जैन दर्शन की दृष्टि में नाना कर्मों से दूषित आत्मा भी विशेष तपश्चर्या द्वारा शुद्ध होकर अनुपम सुख को प्राप्त कर सकता है। अतः कथा एक रूपक कथा का भी उदाहरण है। नाम राजर्षि की कथा उत्तराध्ययनसूत्र की एक महत्वपूर्ण कथा है । यद्यपि इस कथा में नमि-प्रव्रज्या के निर्णय की पूर्वकथा वर्णित नहीं है, किन्तु नमि और इन्द्र के बीच हुए संवाद का विवरण है। नमि प्रवज्या की कथा भरतीय साहित्य में पर्याप्त प्रचलित थी । सम्भवतः इसलिए उसके उपदेशात्मक अंश को ही उत्तराध्ययनसूत्र में अधिक उजागर किया गया है । टीका साहित्य में यह पूरी कथा दी गयी है। उससे ज्ञात होता है कि Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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