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________________ 112/प्राकृत कथा-साहित्य परिशीलन प्रचलित और प्रभावक रूपक रहा है कि धमगत और देशगत सीमाओं को लाघकर इसने विश्वयात्रा की है। इसके विकासक्रम को तीन क्षेत्रों में विभाजित कर सकते हैं। (1) साहित्यक (2) लौकिक और (3) कलागत प्रयोग। साहित्यिक रूपान्तर : मधुबिन्दु अभिप्राय के साहित्यक विकास का अर्थ केवल विभिन्न ग्रन्थों में उसका उल्लिखित होना नहीं है, बल्कि उसके साहित्थिक रूपान्तरों से है। चूंकि यहाँ अध्ययन का क्षेत्र प्राकृत-साहित्य तक ही सीमित है। अतः उसमें उल्लिखित मधुबिन्दु अभिप्राय के स्पान्तरों पर ही विचार हो सकेगा। अभी तक 1- वसुदेवहिण्डी 2- उपदेशमाला (धर्मदासगणि) 3- समाराइच्चकहा 4धर्मोपदेशमालाविवरण (जयसिंहसूरि) 5. सुभाषितरत्नसंदोह 6- धर्मपरीक्षा (अभितगति) 7धम्मपरीवखा (हरिषेण) 8- बहत्कथाकोश 9- जम्बुचरियं (गुणपालमुनि) 10- परिशिष्टपर्वन् ( हेमचन्द्र) 11- समरादित्य संक्षेप ( प्रद्मसूरि) 12- सिरिजंबुसामिचरियं (गद्य, जिनविजय) 13- परिशिष्टपर्व ( गद्य, शुभंकर विजय) 14- समरादित्यकेवलिनोरास (पद्मविजय) 15- श्री सज्जायमाला में मधुबिन्दु कथानक के संदर्भप्राप्त होते है। कुछ अन्य ग्रन्थों में इसकी सम्भावना होने पर भी ग्रन्थ उपलब्ध न होने से उन्हें खोजा नहीं जा सका । मधुबिन्दु की साहित्यिक सन्दर्भ की परम्परा इन ग्रन्थों के अतिरिक्त और भी विस्तार पाने की अपेक्षा रखती है:16 उक्त ग्रन्थों में मधुबिन्दु दृष्टान्त क्रमशः साहित्यिक वर्णनों से युक्त और स्पानिरित भी हुआ है। वसुदेवहिण्डी के सरल कथानक को समराहच्चकहा में साहित्यिक बनाया गया है। कूप अटवी आदि का वर्णन सांगोपांग किया गया है। अभिप्राय के साहित्यिक रूप धम्मपरीक्खा, सिरीजंबुसामिचरियं, परिशिष्टपर्व गद्य में भी प्राप्त होते हैं। उक्त सन्दर्भ ग्रन्थों में प्रमुख रूप से इस अभिप्राय के चार रुपान्तर प्राप्त होते हैं। यथा (1) वसुदेवहिण्डी में पथिक जगली हाथी के भय से कुंए में गिरता है, जबकि समराइच्चकहा में तलवार लिए एक भयंकर राक्षसी का भय उपस्थित किया गया है। इस रुपान्तर के विषय में अन्य ग्रन्थ मौन हैं। सम्मवतः हरिभद्र की राक्षसी महाभारतकार की भयानक स्त्री का रूपान्तर है। इस रूपान्तर के कारण यहां एक यह सम्मावना और जन्म लेती है कि कहीं महाभारत में मधुबिन्दु दृष्टान्त का उल्लेख हरिभद्र के बाद का प्रक्षेपण तो नहीं है ? किन्तु इसमें कोई तथ्य दिखायी नहीं पड़ता। क्योंकि यदि महामारत का उल्लेख प्रक्षेपण होता तो वह भी मधुबिन्दु के नाम से होता, संसारगहन-दृष्टान्त के नाम से नहीं। (2) प्रायः सभी सन्र्दभ ग्रन्थों में वनहस्थी का भय पथिक को दिखाया गया है और उसे मृत्यु का प्रतीक माना गया है। किन्तु बृहत्कथ कोश में वनहस्थी का स्थान बाघ ने ले लिया है। प्रस्तुत अभिप्राय के प्रतीकों का अध्ययन करते समय इस रूपान्तर पर विचार किया जा सकेगा। (3) प्राचीन सभी सन्दर्मों में पथिक मधुबिन्दु की आशा में लटका हुआ रह जाता है, सभी दुःखों को सहन करता रहता है। किन्तु उसकी संकट-मुक्ति का कोई प्रयत्न किसी ग्रन्थकार ने नहीं किया है। जबकि बाद के सन्दर्भग्रन्थों में यह बात देखने को मिलती है। गद्य में लिखित परिशिष्टपर्व में यह कल्पना की गयी है कि यदि कोई विद्याधर या देव उस पथिक को सेकटों से छुड़ाना चाहे तो क्या वह मुक्त होना चाहेगा ?17 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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