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________________ द्वादश धर्मपरीक्षा-अभिप्राय की परम्परा आठवीं शताब्दी के प्राकृत के सशक्त कथाकार-उद्द्योतनसूरि ने कुवलयमालाकहा में काव्य और दर्शन का सुन्दर समन्वय प्रस्तुत किया है। धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तन को प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने अनेक दृष्टान्तों, कथाओं, प्रतीकों और अभिप्रायों का प्रयोग किया है। समुद्र में नौका का भग्न होना, धार्मिक आचार्य द्वारा पूर्व-जन्मों का वृत्तान्त सुनाना, संसार की असारता देखकर वैराग्य प्राप्त करना, धर्मिक पटचित्र का प्रदर्शन, अन्य धार्मिक विचार-धाराओं में जैनधर्म की श्रेष्टता प्रतिपादित करना आदि कुवलयमाला के धार्मिक अभिप्राय हैं। यद्यपि ये अभिप्राय प्रारम्भ से ही प्राकृत साहित्य में प्रयुक्त होते रहे है, किन्तु उद्योतनसूरि ने उन्हें नये रूपों में प्रस्तुत किया है। अन्य धार्मिक मान्यताओं की तुलना में जैनधर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित करना, धर्मपरीक्षा के नाम से जाना गया है। इसके मूल में दूसरे के दोषों को दिखाते हुए अपने गुणों को प्रगट करना रहा है। अन्य धार्मिक मतों में जो अन्ध-विश्वास, पाखण्ड तथा अतिशयोक्तिपूर्ण बातों का समावेश हो गया है उनका खण्डन करते हुए अपने धर्म की सार्वभौमिकता तथा प्रामाणिकता का प्रतिपादन ही धर्मपरीक्षा है। इस मूल भावना को लेकर प्राचीन भारतीय साहित्य में कई रचनाएं विभिन्न भाषाओं में लिखी गयी हैं। प्रो. वेलणकर एवं डॉ.ए.एन्. उपाध्ये ने अपने निबन्धों में धर्मपरीक्षा सम्बन्धी साहित्य का परिचय दिया है। लोक साहित्य में भी इसके अनेक उदाहरण प्राप्त हैं। डिक्शनरी ऑफ फोकलोर में परीक्षा सम्बन्धी अनेक मोटिफ वर्णित हैं, जिनका सम्बन्ध धर्म-परीक्षा से भी है। उद्द्योतनसूरि ने राजा दृढ़वर्मन् की दीक्षा के पूर्व धर्मपरीक्षा के अभिप्राय का प्रयोग किया है। दृढ़वर्मन् किसी अच्छे धर्म में दीक्षित होने के लिए पहले अपनी कुलदेवी की आराधना करता है। कुलदेवी प्रगट होकर उसे एक पट्ट में धर्म का स्वरूप लिखकर देती है। राजा उस धर्म के स्वरूप की जांच करने के लिए नगर के सभी धार्मिक आचार्यों को आमन्त्रित करता है। 33 आचार्य वहाँ एकत्र होते हैं। वे अपने-अपने धर्म का स्वरूप कहते हैं। राजा प्रत्येक के धर्म को सुनकर उसकी अच्छाई-बुराई की समीक्षा करता जाता है। अन्त में अर्हत् धर्म के स्वरूप को सुनकर उसे सन्तोष होता है। क्योंकि कुलदेवी ने भी वही धर्म उसे लिखकर दिया था, मुक्ति प्राप्ति का यही धर्म उसे ठीक लगता है। ___ इस धर्म-परीक्षा के प्रसंग में कई बातें विचारणीय है। आठवीं शताब्दी में इतने मत-मतान्तर धर्म और दर्शन के क्षेत्र में विद्यमान थे, जिनका उल्लेख कुव. में हुआ है। इन 33 आचार्यों की विचार-धाराओं के आधार पर कहा जा सकता है कि उनमें से अद्वैतवादी, सद्वैतवाती, कापालिक, आत्मबधिक, पर्वतपतनक, गुग्गुलधारक, पार्थिव-पूजक, कारुणिक एवं दुष्ट-जीव संहारक ये नौ आचाय शैवमत को मानने वाले थे। एकात्मवादी, पशुयज्ञ-समर्थक, अग्रिहोत्रवादी, बानप्रस्थ, वर्णवादी एवं ध्यानवादी ये छह वैदिक धर्म के आचार्य थे। दानवादी, पूतधार्मिक, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003809
Book TitlePrakrit Katha Sahitya Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherSanghi Prakashan Jaipur
Publication Year1992
Total Pages128
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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