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१०. वसुनन्दि-श्रावकाचारक
__ द्यूतदोष-वर्णन जूयं खेलंतस्स हु कोहो माया य माण-लोहा य । एए वंति तिव्वा पावइ पावं तदो बहुगं ।।६०।। पावेण तेण जर-मरण-वोचिपउरम्मि दुक्खसलिलम्मि । चउगइगमणावत्तम्मि हिंडइ भवसमुद्द म्म ।।६१॥ तत्थ वि दुक्खमणतं छेयण-भेयण विकत्तणाईणं ।। पावइ सरणविरहिओ जूयस्स फलेण सो जीवो ॥६२।। ण गणेइ इट्ठमित्तं ण गुरु ण य मायरं पियरं वा। जूबंधो वुज्जाइं कुणइ अकज्जाइं बहुयाइं ॥६३।। सजणे य परजणे वा देसे सव्वत्थ होइ णिल्लज्जो। माया वि ण विस्सासं वच्चइ जूयं रमंतस्स ॥६४॥ अग्गि-विस-चोर-सप्पा दुक्खं थोवं कुणंति इहलोए। दुक्खं जणेइ जूयं णरस्स भवसयसहस्सेसु ॥६५॥ अक्खेहि णरो रहिओ ण मुणइ सेसिदिएहिं वेएइ । जूयंधो ण य केण वि जाणइ संपुण्णकरणो वि ॥६६॥ अलियं करेइ सवहं जंपइ मोसं भणेइ अइहें । पासम्मि बहिणि-मायं सिसु पि हणेइ कोहंधो ॥६७।। ण य भंजइ आहारं णि ण लहेइ रत्ति-दिण्णं ति।। कत्थ वि ण कुणेइ रई अत्थइ चिताउरो णिच्चं ॥६८॥ इच्चेवमाइबहवो दोसे णाऊण जूयरमणम्मि। परिहरियव्वं णिच्चं दंसणगुणमुव्वहंतेण ।।६९।।
____मद्यदोष-वर्णन मज्जेण णरो अवसो कुणेइ कम्माणि णिदणिज्जाई ।
इहलोए परलोए अणुहवइ अणंतयं दुक्खं ॥७०॥ * पाठ-सम्पादन; पं हीरालाल शास्त्री, वसुनंदि-श्रावकाचार, भारतीय ज्ञानपीठ,
दिल्ली १९५४।
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