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प्राकृत भारती के द्वारा मेरा व्यक्ति वाचक नाम निघृणशर्म घोषित है ।' तब भट्ट अपने गाँव की ओर रवाना हुआ और मूलदेव भी बेन्नातट की ओर
रवाना हुआ। [१३] कुछ समय बाद बस्ती देखी गयी। वहाँ भिक्षार्थ प्रविष्ट होकर
मूलदेव पूरे गाँव में घूमा। थोड़ा भीगा हुआ मूंग आदि धान्य उसे प्राप्त हुआ, और दूसरा कोई अनाज नहीं। वह जलाशय की ओर गया। इसी बीच में उसने वहाँ तप से शोषित देह वाले, महातपस्वी महानुभाव साधु को मासोपवाश के पारणे के लिये प्रविष्ठ होते हुए देखा । उसको देखकर हर्षवश अंकुरित रोमांच से मूलदेव ने सोचा"अहो मैं धन्य और कृतार्थ हुआ, जो इस समय यह महातपस्वी मेरे दर्शनपथ में आया। इसलिये अवश्य ही मेरा कल्याण होगा । कहा भी है
गाथा ११-"जिस प्रकार मरुस्थली में कल्पवृक्ष, दरिद्र के घर में स्वर्ण-वृष्टि, मातंग के घर में हस्ती एवं राजा का महत्त्व है, उसी प्रकार यहाँ इसी मुनि का महात्म्य है । और क्या
गाथा १२-१४-~-यह दर्शन ज्ञान से विशद्ध, पंच-महाव्रतों से उपश मित, धैर्यवान और मुक्तिप्रधान क्षमा, मार्दव, आर्जव से युक्त, स्वाध्याय, ध्यान, तपश्चर्या में निरत, विशद्ध लेश्या वाला, पंच समिति, तीन गुप्ति, अकिंचन को प्राप्त गृह-त्यागी यह साधु हैं अतः ऐसे अच्छे क्षेत्र में प्राप्त, विशुद्ध श्रद्धा-जल से सिंचित, शुद्ध यह द्रव्य
रूपी फसल इस लोक और परलोक में अनन्त फल देने वाली है। [१४] इसलिये ऐसे समय में उचित यह धान्य इसे ही देता हूँ, क्योंकि यह
ग्राम अदायक है और यह महात्मा कुछ घरों में दर्शन देकर लौट आयेगा। मैं यदि दो-तीन बार और घूमगा तो पुनः कुछ प्राप्त कर लँगा । समीपस्थ अन्य दूसरा ग्राम भी है, अतः सब ही इसको दे देता हूँ। तब प्रणाम करके उस साधु को वे उड़द समर्पित कर दिये । साधु के द्वारा भी उसके धर्म-शील के परिणाम की उत्कृष्टता को और द्रव्य आदि की शुद्धि को जानकर "हे धर्नशील ! थोड़े दो" ऐसा कह कर पात्र को रख दिया। उसने भी बढ़ते हुए अतिशय से दिया। और उसने कहा
गाथा १५ (क) वे आदमी धन्य हैं, जिनके पास साधु के पारणा के लिए मूंग आदि धान्य होता है।
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