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________________ कर्पूरमञ्जरी २२५ से भेंट हुई। यह पाँच-सात दिन यहाँ रहे फिर इसे आप ध्यान - विमान से ले जायें । भैरवानन्द -- देवी की जो आज्ञा । विदूषक - ( राजा के प्रति ) आप और मैं भी यहाँ गैर हैं । बाकी सब परस्पर कुटुम्बी हैं । ये दोनों बहनें ठहरीं । भैरवानन्द इनके मिलन कराने वाले पूज्य महापूज्य ( व्यक्ति ) हैं और यह विचक्षणा तो धरती पर सरस्वती, साक्षात् कुट्टनी देवी है । देवी- विचक्षणा, अपनी बड़ी बहन सुलक्षणा से कह दो कि भैरवानन्द का यथेष्ट स्वागत करना है । विचक्षणा- जो देवी की आज्ञा । देवी - ( राजा से) आर्यपुत्र, मुझे आज्ञा दें। मैं इस अवस्था को प्राप्त अपनी बहन की साजसज्जा के लिए अन्तःपुर जाती हूँ । राजा - चम्पक की क्यारी को कस्तूरी और कर्पूर के रस से भर देना उचित ही है। (नेपथ्य में) वैतालिकों में से एक -देव को यह संध्या सुखकर हो । दिन की आत्मा - सा वह सूर्य काल-कवलित होकर पता नहीं कहाँ चला गया । अपने नाथ के चले जाने पर दीर्घ - विरह की आशंका से मूर्च्छित इस दोर्घिका के कमल - नेत्र मुंद गए । (३४) दूसरा- मणिमय आच्छादन तथा चित्रमय भित्तियों से युक्त केलिगृहों के कपाट खोले जा रहे हैं और ऋतु के अनुकूल सुखदायक शय्याएँ दासियों के द्वारा बिछाई जा रही हैं । सैरंधियों के चंचल हाथ और उँगलियों के चलाए जाने से कपड़े की आवाज होती है और केलि-मंडपों में रुष्ट और तुष्ट कामिनियों के हुंकार हो रहे हैं। (३५) राजा- हम भी अब संध्यावदन को चलेंगे । (सभी चले जाते हैं ।) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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