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________________ १२. कर्पूरमञ्जरी* प्रथम जवनिकान्तर सरस्वती का उत्कर्ष हो, व्यासादि कवियों को आनन्द की अनुभूति हो, भावकों को प्रिय लगने वाली अन्य कवियों की उत्कृष्ट वाणी का भी प्रसार हो । (कवियों की कृतियों में) वैदर्भी तथा मागधी (रीतियों) का तथा पाञ्चाली (रीति) का भी (स्वाभाविक) स्फूरण हो और जैसे चकोर ज्योत्स्ना का रसास्वाद करते हैं वैसे ही सहृदय भावक उक्त रीतियों का रसास्वाद करें। (१) आप अनंग और रति को प्रेम-क्रीडा के प्रति नित्य नमन करें जिसमें आलिंगन जैसी भ्रान्त चेष्टायें नहीं हैं, जिसमें चूमने का दिखावा नहीं है और जिसमें (रति के प्रसंग में) स्थूल ताड़न इत्यादि भी नहीं हैं । (२) सुत्रधार--अर्धचन्द्र से मण्डित, सम्मोह का नाश करने वाले तथा देव ताओं के लिए प्रिय शिव और पार्वती का परस्पर मिलन आपको सुख दे। (३) ईर्ष्यावश कुपित पार्वती को प्रसन्न करने क्रम में आकाशगंगा के जल से पूर्ण ( मस्तकस्थित ) चन्द्रकला-रूपी सीप सेजिसमें ज्योत्स्ना रूपी मोती जगमगा रहे हैं, शीघ्रतापूर्वक अनेक बार झुके हुए सिर पर हाथों की अंजलि बनाकर पार्वती के चरणकमलों पर अर्घ्य देते हुए रूद्र की जय हो । ( ४) (घूमकर नेपथ्य की ओर देखकर ) क्या पुनः हमारा नर्तक-समुदाय नृत्य में दत्तचित्त है ? एक (नर्तकी) पात्रोचित परिधान का चुनाव कर रही है। दूसरी फूलों की माला ग्रंथ रही है। कोई मुखौटों को पसार रही है। कोई शिल पर (पीसकर ) वर्णिका तैयार कर रही है। यह बाँसुरी का स्वर मिला दिया गया। यह वीणा का तार ठीक किया जा रहा है। ये तीन मृदंग ठीक किये जा रहे हैं। ये झाल और पखावज गूंज उठे। यह ध्रुवागीत प्रारम्भ हो गया। तो किसी परिजन को बुलाकर पूछू । (नेपथ्य की ओर घूमकर पुकारता है) * अनुवादक-डॉ० रामप्रकाश पोद्दार, कपूरमंजरी, वैशाली, पृ० १७१-१८३ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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