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________________ उत्तराध्ययन सूत्र २०३ योग मिलने पर) एक हजार पुरुषों से परिवृत्त होकर दीक्षा अंगी कार की। २४. इसके पश्चात् समाधिवान भगवान् अरिष्टनेमि ने सुगन्ध से सुवासित कोमल और आकंचित केशों का स्वयमेव शीघ्र ही पंचमुष्टि लोच कर डाला। २५. वासुदेव और बलराम (समुद्रविजय आदि) केशों का लोच किये हुए जितेन्द्रिय अरिष्टनेमि को कहने लगे कि हे दमीश्वर, शीघ्र ही मुक्ति प्राप्ति रूप इच्छित मनोरथ को प्राप्त करो। २६. (वासुदेव आदि फिर कहने लगे कि) ज्ञान से, दान से, चरित्र से और तप से तथा क्षमा से और निर्लोभता से वृद्धिवन्त हो (अर्थात् आप ज्ञान, दर्शन, चरित्र, तप, क्षमा निर्लोभता आदि गुणों की वृद्धि करें।) २७. इस प्रकार वे (बलराम और श्रीकृष्ण) दशाह प्रमुख यादव और बहुत से मनुष्य अरिष्टनेमि को वन्दना करके द्वारका नगरी में लौट आये। और भगवान् भी अन्यत्र विहार कर गये। २८. वह राजकन्या ( राजमती) जिनेन्द्र भगवान् की दीक्षा को सुनकर हास्य रहित और आनन्द से रहित होकर शोक से व्याप्त हो गई। २९. राजमती विचार करने लगी कि मेरे जीवन को धिक्कार है जो मैं उन ( नेमिनाथ ) के द्वारा त्याग दी गई हूँ। ( अब तो) मेरे लिए दीक्षा लेना ही श्रेष्ठ है। ३०. इसके बाद धैर्यवाली संयम के लिए उद्यत हुई उस राजमती ने भ्रमर सरीखे काले, कुर्च और कंघी से संवारे हुए केशों का स्वयमेव लोच कर डाला। ३१. श्री कृष्ण वासुदेव और (बलदेव तथा समुद्र विजय आदि) लोच किये केशों वाली, जितेन्द्रिय उस राजमती को कहने लगे कि 'हे कन्ये ! तू बहुत शीघ्र ही इस घोर संसार सागर को पार कर ( मोक्ष प्राप्त कर।') ३२. शीलवती, बहुश्रुत, उस राजमती ने दीक्षित होकर द्वारकापुरी में बहुत से स्वजन और परिजन की स्त्रियों को दीक्षा दी। ३३. ( जिन्हें राजमती ने दीक्षा दी थी उन सभी साध्वियों को साथ लेकर रैवतकगिरि पर विराजमान भगवान् नेमिनाथ को वन्दना करने चली) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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