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________________ उत्तराध्ययन सूत्र १९९ वाले आगमों को सीखे और निरर्थक ( मोक्ष से रहित ज्योतिष, वैद्यक तथा स्त्री कथा आदि) का त्याग करे। ९. ( यदि कभी गुरु कठोर वचनों से ) शिक्षा दे तो भी बुद्धिमान विनीत शिष्य को क्रोध नहीं करना चाहिए (किन्तु ) क्षमा धारण करनी चाहिए । क्षुद्र व्यक्तियों के साथ संसर्ग एवं हास्य क्रीड़ा का सर्वथा त्याग करना चाहिए। १०. ( साधु को क्रोधादि वश) असत्य भाषण नहीं करना चाहिए और यथा समय शास्त्रादि का अध्ययन करके उसके बाद ( राग-द्वेष रहित होकर ) चिन्तन-मनन करें। ११. यदि कभी (क्रोधादि वश) असत्य वचन मुख से निकल जाय तो उसे कभी भी छिपावे नहीं (किन्तु) किये हुए को किया है और नहीं किये हुए को, नहीं किया, इस प्रकार कहे अर्थात् किये हुए दोष को सरल भाव से स्वीकार कर ले। १२. (जैसे) अडियल घोड़ा बार-बार चाबुक की मार खाये बिना सवार की इच्छानुसार प्रवृत्ति नहीं करता। इसी प्रकार विनीत शिष्य को हर समय (गुरु को) कहने का अवसर नहीं देना चाहिए किन्तु जिस प्रकार अच्छी जाति का विनीत घोड़ा चाबुक देखते ही (सवार की इच्छानुसार) प्रवृति करता है उसी प्रकार विनीत शिष्य को गुरु के इंगिताकार समझ कर उनके मनोभाव के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए और पाप का सर्वथा परित्याग करना चाहिए। १३. (गुरु की) आज्ञा को न मानने वाले, कठोर वचन कहने वाले (तथा) दुष्ट आचार वाले (अविनीत) शिष्य शान्त स्वभाव वाले गुरु को भी क्रोधी बना देते हैं किन्तु गुरु के चित्त के अनुसार प्रवृत्ति करने वाले और शीघ्र ही बिना विलम्ब गुरु के कार्य को करने वाले वे (विनीत शिष्य) निश्चय ही उग्र स्वभाव वाले गुरु को भी प्रसन्न कर लेते हैं। १४. (विनीत शिष्य) बिना पूछे कुछ भी न बोले और पूछने पर असत्य न बोले (यदि कभी) क्रोध (उत्पन्न हो जाय तो उसका अशुभ फल सोचकर) उसे (असत्य) निष्फल कर देखें तथा अप्रिय (लगने वाले गुरु के कठोर वचन) को भी ( हितकारी जान कर ) प्रिय समझें एवं धारण करें। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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