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________________ १८६ प्राकृत भारती १०. वह अगड़दत्त पर्वत, नदी, वन, नगर, गोष्ठ, ग्राम आदि को लाँघता हुआ अपने नगर से दूर वाराणसी नगरी में पहुँचा । ११. झुण्ड से परिभृष्ट हाथी के समान चित्त में क्षुब्ध होकर वह अगडदत्त वाराणसी नगरी के बीचों-बीच तिराहों एवं चौराहों पर असहाय होकर घूमने लगा। १२. उसी समय उस राजपुत्र अगडदत्त ने नगर के रास्ते में घूमते हुए बहुत से युवकों के साथ एक जानकार (ज्ञानवान व्यक्ति) को देखा । १३.-१४. वह जानकार शास्त्र, अर्थ आदि कलाओं में निपूण, विद्वान्, मनो वैज्ञानिक, गम्भीर, परोपकार में लीन, दयालु तथा रूप एवं सुन्दर गुणों से युक्त पवनचण्ड नाम से प्रसिद्ध था। वह अपना नाम प्रतिपक्षियों-विरोधियों के साथ सार्थक करता था न कि शिष्यों के साथ । वह राजकुमारों को रथ-संचालन, घोड़ों की चाल, हस्ति-संचालन और हाथियों को वश में करने की शिक्षा देता हुआ वहाँ रहता था। १५. वह अगडदत्त उस जानकार पवनचण्ड के समीप जाकर तथा उनके दोनों चरणों में प्रणाम कर वहाँ बैठ गया । उस जानकार ने इस प्रकार पूछा-“हे सुन्दर राजकुमार, तुम कहाँ से आये हो ?' १६. उस कुमार अगडदत्त ने पवनचण्ड नामक उस जानकर से एकान्त में जाकर शंखपुर नगर से जिस प्रकार वह निकला था, वह सभी वृत्तान्त उसे कह दिया। १७. उस पवनचण्ड नामक जानकार ने अगडदत्त से कहा "हे सज्जन, तुम कलाओं को सीखते हुए यहीं रहो । लेकिन अपना यह गोपनीय वृत्तान्त किसी को भी प्रकट न करना ।" १८. वह गुरु पवनचण्ड उठा और राजपूत्र अगडदत्त के साथ अपने घर पहुँचा । वहाँ उसने अपनी धर्मपत्नी से कहा-"यह मेरा भतीजा है।" १९. उस श्रेष्ठ कुमार को स्नान कराकर तथा उत्कृष्ट कोटि के वस्त्र आभूषण आदि देकर भोजनोपरान्त पवनचण्ड ने उस अगडदत्त से इस प्रकार कहा२०. “हे कुमार ! भवन, धन, रथ, घोड़े आदि जो भी मेरे समीप हैं, उन्हें तुम अपने अधीन समझो और उनका अपने हृदय की इच्छा के अनुसार, ही उपभोग करो।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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