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प्राकृत भारती
पीछे दौड़ता है। उसके आगे-आगे जाती हुई वह यक्षिणी भी उसे अपने वन में ले जाती है ।
२४. बहुसाल नामक वटवृक्ष के नीचे के रास्ते से वह कुमार पाताल के बीच में ले जाया गया। वहाँ वह देव भवनों की तरह अत्यन्त रमणीय स्वर्णमय भवन को देखता है । वह कैसा है ? -
२५.-२६. रत्नमय खम्भों की पंक्तियों की चमक से भरे हुए अभ्यन्तर प्रदेशवाला, मणिमय द्वारों की चौखटों की ताजी प्रभा के किरणों से चमकदार, मणिमय खम्भों पर बनी हुई पुतलियों की क्रीड़ाओं से लोगों के समूह को क्षोभित करने वाला, अनेक दीवालों पर चित्रों से चित्रित गवाक्षों के समूह की शोभा वाला
२७. ऐसे संसार के मन को आश्चर्य में डालने वाले उस देव भवन को देखकर अत्यन्त विस्मय को प्राप्त वह राजकुमार इस प्रकार सोचने
लगा
२८. क्या यह इन्द्रजाल है अथवा स्वप्न में यह देखा जा रहा है एवं मेरे अपने नगर से इस भवन में मैं किसके द्वारा लाया गया हूँ ।
२९. इस प्रकार सन्देह से भरे हुए कुमार को पलंग पर बैठाकर वह व्यन्तरवधू ( यक्षिणी) निवेदन करती है - 'हे स्वामी ! मेरी बात सुनिए -
३०. मुझ मंदबुद्धिवाली के द्वारा बहुत समय बाद हे नाथ! आज आप दिखायी दिये हैं । इस सुरभि वन के देव भवन में अपने काम के लिए आप मेरे द्वारा लाये गये हैं ।
३१. आज ही मेरा मनमनोरथ रूपी कल्पवृक्ष फला है जो कि किये गए पुण्यों के वश से आज आप मुझसे मिले हैं।'
३२. इस वचन को सुनकर और उसके अच्छे नयनों वाले मुख को देखकर उस राजकुमार के मन में पूर्व जन्म का स्नेह उत्पन्न हो गया ।
३३. पूर्व जन्म में इसको कहीं देखा है और मेरी यह परिचिता है, इस ऊहापोह के कारण उसे जाति-स्मरण (पूर्व जन्म का ज्ञान ) उत्पन्न हो गया ।
३४. जाति-स्मरण से उस कुमार ने पूर्व जन्म के वृत्तान्त को जानकर अपनी प्रिया के सामने सब कुछ कह दिया ।
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