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________________ आरामशोभाकथा १६३ को छीनकर, अग्निशर्मा एवं उसकी पत्नी के कान एवं नाक छेदकर, उन्हें मेरे देश से निर्वासित कर दो।" व्रजाग्नि के स्फलिंग के समान उग्र राजा के इन वचनों को सुनकर आरामशोभा ने पति के चरणों में गिरकर प्रार्थना की गाथा २१-जिस प्रकार कुत्ता किसी सज्जन पुरुष को काट लेता है, तो क्या वह (सज्जन) भी उसे काट लेता है ? यह समझ कर ही हे नाथ, मेरे पिता को भी सजा से मुक्त कर मेरे ऊपर कृपा कीजिए।" T४४] इस प्रकार देवी के आग्रह से राजा ने उसके चित्त के विषाद को दूर करने के लिए ही उसके पिता को बारह ग्राम पूर्ववत् ही वापिस दे दिये और उसके बाद वे दोनों राजा-रानी विषय-सुखों का अनुभव करते हुए सुखपूर्वक समय व्यतीत करने लगे। [४५] किसी एक समय परस्पर में धर्म-विचार करते हुए आरामशोभा ने इस प्रकार का वार्तालाप किया-“प्रियतम, पूर्वकाल में मैं दुखी होकर बाद में सुख-भागिनी बनी थी। इससे मुझे ऐसा प्रतिभासित होता है कि यह किसी पूर्व कर्म का ही फल है । इसीलिए यदि कोई ज्ञानी मिले, तो मैं उससे इसका कारण पूछना चाहती हूँ।" Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003808
Book TitlePrakrit Bharti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPrem Suman Jain
PublisherAgam Ahimsa Samta Evam Prakrit Samsthan
Publication Year1991
Total Pages268
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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