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प्राकृत भारती है । जैन ग्रन्थों के अतिरिक्त भारत के प्राचीन नाटकों में भी इसका प्रयोग हुआ है । इसमें कृत्रिम रूपों की अधिकता पायी जाती है ।
शौरसेनी में त का 'द', थ, और ह का 'ध' एवं भ का 'ह' में परिवर्तन होता है । यथा-जानाति -जाणादि, कथयति कधेदि आदि । गच्छति - गच्छदि, गच्छदे, भवति - भोदि, होदि, इदानीम् - दाणि, पठित्त्वा पढिया, पढिदूण आदि रूप शौरसेनी के विशिष्ट प्रयोग हैं। प्रयोग की दृष्टि से विद्वान् शौरसेनी के दो भेद करते हैं - (१) जैन शौरसेनी एवं (२) नाटकीय शौरसेनी । महाराष्ट्री :
सामान्य प्राकृत का दूसरा नाम महाराष्ट्री प्राकृत है, ऐसी कई विद्वानों की धारणा है, किन्तु इसका यह नाम उत्पत्ति-स्थल के कारण ही अधिक प्रचलित हुआ है। महाराष्ट्र प्रदेश में जो प्राचीन प्राकृत प्रचलित थी, उसी के बाद काव्य और नाटकों की महाराष्ट्री प्राकृत का जन्म हुआ है । इस प्राकृत में संस्कृत के वर्णों का अधिकतम लोप होने की प्रवृति पायी जाती है । इस कारण महाराष्ट्री प्राकृत काव्य में सबसे अधिक प्रयुक्त हुई है । अतः इसे साहित्यिक प्राकृत भी कहा जा सकता है । जैन काव्य-ग्रन्थों और नाटक आदि काव्य-ग्रन्थों की महाराष्ट्री प्राकृत में कुछ भिन्नता है, अतः कुछ विद्वान् महाराष्ट्री और जैन महाराष्ट्री, इसके ऐसे दो भेद भी मानते हैं ।
मागधी :
अन्य प्राकृतों की तरह मागधी में स्वतन्त्र रचनाएँ नहीं पायी जातीं । केवल संस्कृत-नाटकों और शिलालेखों में इसके प्रयोग देखने में आते हैं । अतः प्रतीत होता है कि मागधी कोई निश्चित भाषा नहीं थी, अपितु उन कई बोलियों का उसमें सम्मिश्रण था, जिनमें ज के स्थान पर य, र के स्थान पर ल, स के स्थान पर श तथा अकारान्त शब्दों में 'ए' का प्रयोग होता था । मागधी का निश्चित प्रदेश तय करना कठिन है, किन्तु सभी विद्वान् इसे मगध देश की ही भाषा मानते हैं, जो अपने समय में राजभाषा भी थी । इसकी उत्पत्ति वैदिक युग की किसी कथ्य भाषा से मानी जाती है, यद्यपि इसकी प्रकृति शौरसेनी को माना गया है । शकारी, चाण्डाली और शाबरी जैसी लोक- भाषाएँ मागधी की ही प्रशाखाएँ हैं । पैशाची :
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पैशाची प्राकृत का समय ईसा की दूसरी से पाँचवीं शताब्दी तक
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