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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् इति कथमनयोरेकत्र सद्भावः ? अथ नात्राधाराधेयभावस्तर्हि तेषां सत्त्वमुताऽसत्त्वमिति वक्तव्यम् । यद्याद्यः पक्षः, तदा 'संयोगादिगुणात्मकाः परमाणव एव तथाभूतं कार्यम्' इति जैनपक्षः एव समाश्रितः स्यात् । द्वितीयपक्षे तु सर्वानुपलब्धिप्रसक्तिः ।
यदि च परमाणवः स्वरूपाऽपरित्यागतः कार्यद्रव्यमारभन्ते स्वात्मनोऽव्यतिरिक्तं तदा कार्यद्रव्यानुत्पत्तिप्रसक्तिः । न हि कार्यद्रव्ये परमाणुस्वरूपाऽपरित्यागे स्थूलत्वस्य सद्भावः तस्य तदभावात्मकत्वात् । तस्मात् परमाणुरूपतापरित्यागेन मृद्रव्यं स्थूलकार्यस्वरूपमासादयति इति तद्रूपतापरित्यागेन च पुनरपि परमाणुरूपतामनुभवतीति वलयवत् पुद्गलद्रव्यपरिणतेरादिरन्तो वा न विद्यते इति न कार्यद्रव्यं कारणेभ्यो भिन्नम् । न चार्थान्तरभावगमनं विनाशोऽयुक्त इति तद्रूपपरित्यागोपादानात्मकस्थितिस्वभावस्य द्रव्यस्य त्रैकाल्यं नानुपपन्नम् । यथा च एकसंख्या-संयोग-महत्त्वाऽपरत्वादिपर्यायैः परमाणूनामुत्पत्तेः कार्यरूपाः परमाणवस्तथा बहुत्वसंख्याविभागाल्पपरिमाणपरत्वात्मकत्वेन प्रादुर्भावात् परमाणवः कार्यद्रव्यवत् तथोत्पन्नाश्चाभ्युपगन्तव्याः, कारणान्वय-व्यतिरेकानुविधानोपलम्भस्य कार्यताव्यवस्थानिबन्धनस्यात्रापि सद्भावादिति अयमर्थः 'तत्तो य' इत्यादि गाथापश्चार्द्धन प्रदर्शितः । असत् है, तब दूसरा कोई भी सम्बन्ध रूप अर्थ भेदपक्ष में संभव न होने से, अपृथक् का अर्थ अभिन्न ऐसा करना ही होगा । दूसरी ओर, 'आधार-आधेयभाव' के बतलाने से एकत्व का निषेध फलित होता है (क्योंकि अनेक में ही आश्रयआश्रयिभाव हो सकता है) इसलिये भेद का निषेध करके एकत्व का निर्देश करनेवाले 'अपृथक्' शब्द का अर्थ अभेद और एकत्वनिषेध करनेवाले 'आधार-आधेयभाव' शब्द का अर्थ भेद, ये दोनों का एक स्थान में समावेश कैसे हो सकता है ?
वादी :- हम अपृथक्भाव मानेंगे लेकिन आधारआधेयभाव नहीं मानते हैं ।
प्रतिवादी :- तब यह दिखाना पडेगा कि कार्य और गुण 'सद्भूत हैं या असद्भूत ?' यदि सद्भूत हैं तब तो 'संयोगादिगुणात्मक जो परमाणुवर्ग है वही कार्य है' यह एकमात्र जैनपक्ष अंगीकार कर लेना होगा। यदि कार्य और गुण को (रूपादि को भी) असत् मानेंगे तो किसी भी चीज की उपलब्धि ही शक्य न रहेगी।
प्रतिवादी आगे यही बात कहना चाहता है कि यदि परमाणु अपने (अजनकत्वादि) स्वरूप का परित्याग किये बिना ही अपने से अभिन्न व्यणुक आदि कार्यद्रव्य का निर्माण करते हैं - ऐसा मानेंगे तब तो कभी कार्यद्रव्य का जन्म ही नहीं होगा । कारण, परमाणु द्रव्य अपने परमाणुस्वरूप का परिहार नहीं करेंगे तो उस से अभिन्न कार्यद्रव्य में स्थूलत्व का आविर्भाव ही कैसे होगा ? स्थूलत्व तो परमाणुत्वाभावात्मक है, अभाव और प्रतियोगी कैसे एकाधिकरण हो सकते हैं ? निष्कर्ष यह है कि दो परमाणु के संयोगात्मक अतिशय से कार्यद्रव्य के जन्म की थियोरी बराबर नहीं है, वास्तव में परमाणुस्वरूप मिट्टीद्रव्य ही अपने परमाणुस्वरूप का परिहार कर के स्थल कार्यस्वरूप को धारण करता है और कभी वही कार्यद्रव्य अपने स्थल स्वरूप का परिहार कर के परमाणुस्वरूप का आदर करता है। अनादि काल से इस प्रकार पुद्गलद्रव्य में कभी परमा तो कभी स्थूल-स्वरूप परिणामों की परम्परा चली आती है और भविष्य में अनन्त काल तक चलने वाली है, इसलिये इस प्रकार के परिणामों के प्रवाह का वलयाकार की तरह न तो कहीं प्रारम्भबिन्दु है न कहीं अन्तबिन्दु है । वलयाकार चूडी इत्यादि द्रव्यों में कोई प्रारम्भ-अन्त उपलब्ध नहीं होता जैसे किसी नेतर की * तथोत्पन्ना अभ्यु० इति पाठान्तरम् ।
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