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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् न च भिन्नयोगक्षेमत्वात् कार्य-कारणयोरेकत्वमनुपपन्नम् स्वभावभेदेप्येकत्वप्रतिपत्तेः, सर्वसंवित्क्षणानामेकदोत्पत्तिविनाशवतामभिन्नयोगक्षेमत्वेऽपि च परस्परतः पृथग्भावसिद्धेः। अथात्राभिन्नयोगक्षेमपक्षेऽपि प्रतिभासभेदा दस्तर्हि यत्र प्रतिभासाभेदस्तत्र भिन्नयोगक्षेमत्वेप्यभेदः, प्रतिभासभेदाभेदयोर्वस्तुभेदाभेदव्यवस्थापकत्वात् समुदायस्य च देशकालभेदाभावात् सकृदेव संवित्त्यात्मनोत्पत्तेरेकत्वं च प्रसज्येत । यदि च स्वभावभेदो वस्तुभेदलक्षणम् तदा सन्तानान्तरयोरिव विषयविषयीरूपायां संवितेरेकत्वेऽपि प्रत्यक्षेतरयोर्वाऽसौ विद्यत इति नानात्वं भवेत् । यदि पुनः स्वभावभेदाऽविशेषेऽपि विवक्षितज्ञानक्षणाकारयोरेव तादात्म्यम् न पुनः सन्तानान्तरसंवित्तीनामिति प्रत्यासत्तेः कुतश्चिद् व्यवस्थाप्यते तर्हि परस्यापि विवक्षितैकार्थोपादानोपादेयभूतयोरेवावस्थयोस्तादात्म्यं कथंचिद् वदतो न कश्चिद् दोषः प्रसक्तिमान् । निराकृतश्चानेकशः एकान्तवादः तत्प्रसाधकहेतुनां सर्वेषामनेकान्तव्याप्ततया विरुद्धताप्रदर्शनात्, तत्प्रदर्शनं चैकान्तवादिनिग्रहस्थानमनेकान्तवादिविजयस्यैवेतरपराजयाधिकरणप्राप्तिलक्षणत्वात्, “विरुद्धं क्योंकि एक को अहेतुक और अन्य को सहेतुक मानने के पक्ष में कोई युक्ति नहीं है।
* प्रतिभास का भेद-अभेद वस्तुभेद-अभेद का स्थापक * शंका :- कारण और कार्य के योग-क्षेम भिन्न भिन्न होते हैं। कारण पूर्ववर्ती होता है, कार्य उत्तरवर्ती होता है; कारण सिद्ध रहता है, कार्य साध्य होता है इत्यादि। अतः योग-क्षेम के भेद से कारण और कार्य में भेद मानना उचित है न कि पहले कहे आये हैं ऐसा एकत्व। ___ उत्तर :- ऐसा नहीं है। स्वभावभेद (योग-क्षेम आदि का भेद) के रहने पर भी एकत्व मानना उचित है। उस से उलटा, एक साथ उत्पन्न-विनष्ट संवेदनक्षणों में योग-क्षेम-भेद न होने पर भी उन में परस्पर भेद सिद्ध माना जाता है। यदि कहा जाय - 'वहाँ योग-क्षेम-भेद के न होने पर भी प्रतिभास भिन्न भिन्न होता है इस लिये एक श्वेतवस्त्रक्षण से अन्य श्वेतवस्त्रक्षण में भेद मान सकते हैं।' - तो यहाँ समझना चाहिये कि जैसे योगक्षेमभेद न होने पर भी प्रतिभासभेद से क्षणभेद माना जाता है तो वैसे ही योगक्षेमभेद रहने पर भी प्रतिभास के अभेद से अभेद मान लेना चाहिये, क्योंकि अब तो आप प्रतिभास के भेद या अभेद के आधार पर वस्त में भेद या अभेद की स्थापना करते हैं। तथा. बौद्धमत में स्थल द्रव्य को अवयवीरूप न मान कर परमाणुसमुदायात्मक ही माना जाता है; वास्तव में वहाँ एकत्व न होने पर भी अब एकत्व प्रसक्त होगा, क्योंकि वहाँ न देशभेद है न कालभेद, और उन का आत्मसंवेदन भी एक ही होता है।
यदि स्वभावभेद को वस्तुभेदप्रयोजक माना जाय तो जैसे एकसंतान के संवेदन से अन्य सन्तानगत संवेदन भिन्न होता है वैसे एक ही संवेदन में विषयस्वभाव और विषयीस्वभाव का भेद होने से संवेदनभेद प्रसक्त होगा। अथवा वही एक संवेदन स्व के लिये प्रत्यक्ष और अन्य के लिये परोक्षस्वभाव होने से पुनः संवेदनभेद प्रसक्त होगा। अब यदि स्वभावभेद दोनों स्थल में समान होने पर भी सन्तानान्तरवर्ती क्षणों में ही भेद स्वीकार्य है, विषय-विषयीभावापन्न अथवा प्रत्यक्ष-परोक्षभावापन्न विवक्षितज्ञानक्षण के आकारों में भेद स्वीकार्य नहीं है, किसी भी सम्बन्धविशेष के आधार पर आप ऐसी स्थापना करना चाहते है तो फिर प्रतिवादी भी कह सकता है कि विवक्षित एक भाव की उपादान-उपादेय-भावापन्न कारण-कार्यभूत अवस्थाओं में ही कथंचित् तादात्म्य होता है - ऐसा कहने में स्याद्वादी को कोई दोष नहीं लगता।
निष्कर्ष यह है कि एकान्तवादसाधक सभी हेतु वास्तव में एकान्त से उलटा यानी अनेकान्त के साथ व्याप्त होने से विरुद्धदोषग्रस्त होते हैं यह प्रदर्शन पहले कई बार कर के अनेक दफा एकान्तवाद का निरसन
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