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श्री सम्मति - तर्कप्रकरणम्
कर्मणि नियुज्यमानमवगच्छति, तदवगमाच्चेच्छयैव प्रवर्त्ततेऽतः प्रवृत्तिरप्यन्यथासिद्धेति नासौ लिडर्थमवगमयति। किञ्च, प्रवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या निमित्तमात्रस्यैवावगतिः न विध्यर्थस्य प्रत्यक्षादेरपि, हेयमुपादेयं चार्थमवगत्य निवर्त्तन्ते प्रवर्त्तन्ते वा जन्तवः । न च तत्र विधेर्निर्वर्त्तकत्वम् प्रवर्त्तकत्वं वेष्यते, एवमि - हाप्यभिप्रेतफलार्थी अध्येषणादेरिच्छातो वा प्रवर्त्तेत । न चाध्येषणादेर्व्यभिचारात् प्रवर्त्तकत्वमयुक्तम् यथासम्भवं प्रवर्त्तकत्वोपपत्तेः, यदाऽध्येषणा तदा तस्या एव प्रवर्त्तकत्वम् यदा तु प्रेषणा तदा तस्या एव। न हि रक्ततन्त्वभावेऽपि शुक्लेभ्यस्तेभ्यः पटोत्पत्तौ रक्ततन्वतो न स्वोत्पाद्यपटोत्पत्तौ परिणामिकारणतां प्रतिपद्यन्ते। न च तद्व्यतिरिक्तोऽन्यः कश्चित् तत्र परिणामिकारणत्वामासादयति ।
किञ्च, धात्वर्थोऽपि यदि धातुना परिनिष्पन्नोऽभिधीयते तदा न विधेः पुरुषप्रेरकत्वमभ्युपगन्तव्यम् धात्वर्थस्य निष्पन्नत्वात् । सामान्यपदार्थवादिनां तु धात्वभिधेयस्य कथं पुरुषव्यापारसाध्यत्वम् सामान्यस्य नित्यतया साध्यत्वाऽनुपपत्तेः ? न च विशेष उत्पाद्यो धातुवाच्यः, तेन सह नित्यतया * विधि की प्रतीति पर दो विकल्प
दो विकल्प और भी है, (१) वाक्यश्रवण के बाद विधि का अवबोध होता है या (२) पुरुषप्रवृत्ति की अन्यथा अनुपपत्ति से उस का भान होता है ? प्रथम पक्ष संगत नहीं है, क्योंकि वाक्य श्रवण बाद अध्येषणादि से विशिष्टतया पुरुष की ही पुरुष को प्रतीति होती है । 'यह वाक्य मुझे क्रिया में नियुक्त कर रहा है' ऐसा ही भान पुरुष को होता है ( न की विधि का ) । इस बोध के बाद तो फलेच्छा से ही पुरुष की प्रवृत्ति होती है । अतः पुरुषप्रवृत्ति की अन्यथा = विधि के विना, अनुपपत्ति न होने से, प्रवृत्ति विधि के बिना भी सिद्ध होने से, दूसरे विकल्प में, पुरुषप्रवृत्ति की अन्यथा अनुपपत्ति भी लिट्प्रत्ययार्थ विधि की बोधक नहीं हो सकती । यह भी ध्यान रहे कि प्रवृत्ति की अन्यथा अनुपपत्ति तो सिर्फ निमित्तमात्र का बोध करायेगी न कि उस निमित् के रूप मे विध्यर्थ का भी, क्योंकि निमित्त तो प्रत्यक्षादि कोई भी हो सकता है, प्रत्यक्षादि से भी जन्तुवर्ग हेय-उपादेय का विवेक प्राप्त करके निवृत्ति - प्रवृत्ति करते हैं । प्रत्यक्षादि से होने वाली निवृत्ति - प्रवृत्ति में विध को निवर्त्तक या प्रवर्त्तक नहीं माना जाता, तो फिर यहाँ भी स्वर्गादि इष्ट फल का अभिलाषी अध्येषणा से अथवा इच्छा से यथासम्भव प्रवृत्ति कर लेगा, विधि को मानने में कोई प्रमाण नहीं है।
पहले अध्येषणा - प्रेषणा में व्यभिचार दर्शाया है, अतः अध्येषणा आदि को प्रवर्त्तक
यदि कहा जाय कि नहीं माना जा सकता तो यह गलत है क्योंकि अध्येषणादि में भी यथासम्भव ( जब जो उपस्थित हो उन में) प्रवर्त्तकता घट सकती है, जैसे देखिये कि प्रेषणा के बदले जहाँ अध्येषणा मौजूद है वहाँ अध्येषणा प्रवर्त्तक होगी, जहाँ अध्येषणा नहीं है प्रेषणा है - वहाँ प्रेषणा प्रवर्त्तक होगी। यदि एक प्रकार का कारण मौजूद न होने पर दूसरे प्रकार के कारण से कार्यनिष्पत्ति के स्थल में व्यभिचार दोष माना जायेगा तो रक्ततन्तु आदि की कारणता का भंग होगा । रक्त तन्तुओं के न होने पर श्वेत तन्तुओं से वस्त्र की उत्पत्ति होती है, इस का मतलब यह कभी नहीं है कि रक्त तन्तुओं से उत्पन्न होनेवाले वस्त्र के प्रति रक्त तन्तु उपादान कारण न बनते हो। जहाँ श्वेतादि तन्तु नहीं है सिर्फ रक्त तन्तु मौजूद है और वस्त्रोत्पत्ति होती है वहाँ रक्त तन्तु के अलावा और कोई उपादान कारण बन ही नहीं सकता ।
* निष्पन्न धात्वर्थ धातुवाच्य हो तब विधि निरर्थक
यह भी विचारयोग्य है कि यदि धात्वर्थ निष्पन्न ही है और वह धातु से प्रतिपाद्य माना जाय तो विधि
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