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________________ ३१० श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् (६) 'कुत्सितमिदं शरीरकं शुक्र-शोणितसमुद्भूतमशुचिभृतघटोपममनित्यमपरित्राणं गलदशुचिनवछिद्रतयाऽशुचि आ (?अना)धेयशौचम्, न किञ्चिदत्र कमनीयतरं समस्ति । किम्पाकफलोपभोगोपमाः प्रमुखरसिका विपाककटवः प्रकृत्या भङ्गुराः पराधीनाः संतोषामृतास्वादपरिपन्थिनः सद्भिर्निन्दिताः विषयाः तदुद्भवं च सुखं दुःखानुषङ्गि दुःखजनकं च नातो देहिनां तृप्तिः। न चैतदात्यन्तिकमिति नात्रास्था विवेकिनाऽऽधातुं युक्तेति विरतिरेवातः श्रेयस्कारिणी' इत्यादिरागहेतुविरोधानुचिन्तनं वैराग्यविचयम्। (७) 'प्रेत्य स्वकृतकर्मफलोपभोगार्थं पुनः प्रादुर्भावो' भवः । स चारघट्टघटीयन्त्रवद् मूत्रपुरीषाऽन्त्रतन्त्रनिबद्धदुर्गन्धजठरपुटकोटरादिषु अजस्रमावर्त्तनम् । न चात्र किञ्चिज्जन्तोः स्वकृतकर्मफलमनुभवतः * शरीर एवं विषयों के प्रति वैमुख्य का चिन्तन * (६) विरागविचय :- यह शरीर गंदा है, पुरुष के शुक्र और स्त्री के खून जैसे अशुचिमय तत्त्वों के मिलन से इस का प्रादुर्भाव होता है। छिद्रालु और विष्ठा से भरे हुए घड़े के तुल्य यह शरीर अपने नव नव छिद्रों से सदा गन्दगी उगलता रहता है इस लिये यह अशुचिमय है। कितनी भी कोशिश कर के जल और साबुन से उस को धोया जाय लेकिन वह कभी स्वच्छ-पवित्र नहीं होता। इसलिये इस काया में कुछ भी रमणीयता नहीं है। आखिर एक दिन वह मिट्टी में मिल जाने वाला है। प्राणवियोग के बाद वह सडेगा - विरस बनेगा और विध्वस्त हो जायेगा - कोई भी इस स्थिति से उस को बचा नही सकता। शरीरतुष्टिपुष्टि के लिये जिन विषयों का उपभोग किया जाता है वे भी किम्पाकफल तुल्य विषैले हैं जिन को खाने से फल-विपाक प्राण-घातक, रोग-वर्धक एवं दुर्गतिसर्जक होता है। बिजली की भाँति ये चञ्चल-विनश्वर होते हैं। स्वाधीन भी नहीं होते, उन को हाँसिल करने के लिये कई लोगों की या अन्य जड तत्त्वों की गुलामी करनी पड़ती है। ये विषय संतोषात्मक सुधाकुण्ड के अमृतपान में अवरोध डालनेवाले हैं। शिष्ट लोग हर हमेश इन विषयों की निंदा करते आये हैं। विषयजन्य सुख भी ऐसा है जिस के पिछे दुःखों की रफ्तार चली आती है, वह सूख भी दुःख का सर्जन कर देता है: कितना भी हो. जीव को कभी भी इस से तृप्ति नहीं होती। विषयसुख देखते देखते ही नष्ट हो जाता है और अपने स्वरूप में सदा अपरिपूर्ण ही होता है। विवेकी लोगों को ऐसे भद्दे विषयसख में आसक्ति रखना ही नहीं चाहिये. उस से हजारों रहने में ही श्रेय हैं, इसीलिये श्री तीर्थंकरोंने विरतिधर्म को ही यानी सर्वविषयत्याग को ही श्रेयस्कर बताया है। इस ढंग से रागोत्पादक विषयों के बारे में विपरीत चिन्तन करना यही वैराग्यविषय धर्मध्यान है। (७) भवविचय :- भव यानी संसार, अर्थात् अपने किये हुए कर्मों के फलभोग के लिये परलोक में जन्म धारण करना - पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननीजठरे शयनम् - जननी का जठर मूत्र-विष्ठा और आँतडीयों के तन्त्र से भरा हुआ एवं दुर्गन्धिपूर्ण रहता है। ऐसे जठरपुटकक्ष में बार बार जन्म लेना पडे – यही भव है। जैसे खेतों में जलसिञ्चन के लिये विशाल कूपों में घटी-यन्त्र की रचना की जाती है - जिस को अरघट्ट कहा जाता है – बैल की सहायता से वह घुमाया जाता है। अरघट्ट में जुडी हुई घडियाँ नीचे जाती है - उस में जल भर जाता है, फिर वे ऊपर आती है तब सारा जल खाली हो जाता है, पूनः वे नीचे जाती हैं, पुनः पानी भरता है, ऊपर आती है, खाली हो जाती हैं – ठीक ऐसे ही यह जीव भी संसार में एक गति से दूसरी गति में भटकता रहता है, कभी नीचे नरक में जाता है, कभी ऊपर स्वर्ग में जाता है, चक्कर मारता रहता है, उस के भ्रमण का अभी तक अन्त नहीं आया। विविध गतियों में परिभ्रमण के दौरान Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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