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________________ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् अथात्मादिद्रव्यमेव तेनाऽऽकारेणोत्पद्यत इति नाऽदलोत्पत्तिः कार्यस्य । भवत्येवमुत्पत्तिः किन्त्वात्मद्रव्यं पूर्वमप्यासीत् पश्चादपि भविष्यति, तत्सर्वावस्थासु तादात्म्यप्रतीतेः, अन्यथा पूर्वोत्तरावस्थयोस्तप्रतिभासो न भवेत् । न चैकत्वप्रतिभासो भ्रान्तः, बाधकाभावे भ्रान्त्यसिद्धेः । न चार्थक्रियाविरोधो नित्यत्वे बाधकः, अनित्यत्वे एव तस्य बाधकत्वेन प्रतिपादनात् । न चोत्पाद-विनाशयोरपि तत्र प्रतिपत्तावेकान्ततो नित्यत्वमेव, परिणामिनित्यतया तस्य नित्यत्वात्, अन्यथा खरविषाणवत् तस्याऽभावप्रसंगात् । न चैवं तस्य विकारित्वप्रसंगो दोषाय, अभीष्टत्वात् । न च नित्यत्वविरोधस्तथैव तत्तत्त्वप्रतीतेः । न च तस्य तथात्वप्रतिपत्तिर्धान्तिः, बाधकाभावादित्युक्तत्वात् । विज्ञान पर्याय का उद्भव हो सकेगा -- तो यह युक्त नहीं है, क्योंकि 'उस में उद्भव' ऐसा दिखाने के लिये उन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध होना चाहिये, जो नहीं है इसलिये 'उस में ऐसा वचनप्रयोग निरर्थक है । यदि यहाँ समवाय सम्बन्ध की कल्पना करेंगे तो व्यापकरूप से सर्वत्र आकाशादि में उस के विद्यमान होने से आकाश में भी समवाय सम्बन्ध से विज्ञानोद्भव हो जायेगा । * पूर्वोत्तर अवस्था में एक ज्ञानात्मा की अनुवृत्ति * यदि कहें कि -- 'सम्बन्ध की जरूर ही नहीं है, आत्मद्रव्य ही वर्तमानविज्ञानपर्यायरूप से उत्पन्न होता है अत: विज्ञानोत्पत्ति निर्दल -- निराधार नहीं है' -- तो इस में हम सम्मत है, इस प्रकार उसकी उत्पत्ति बिना सम्बन्ध हो सकती है, किन्तु अब यह ध्यान में लिया जाय कि विज्ञानाकार आत्मद्रव्य से अभिन्न है, आत्मद्रव्य पूर्वकाल में भी था और भावि काल में भी रहने वाला है, फलतः आत्मद्रव्य के अभेद से वह विज्ञान भी आत्मद्रव्यरूप में पूर्व काल में था और भाविकाल में रहेगा, क्योंकि पूर्व-पश्चात् काल भावी सर्वअवस्थाओं के साथ आत्मद्रव्य का तादात्म्य अनुभवोपारूढ है । यदि इस बात को नहीं मानेंगे तो पूर्वपश्चात् अवस्थाओं में निरन्तर आत्मद्रव्य का जो अनुभव होता है वह नहीं हो पायेगा । यदि ऐसा कहें कि - 'पूर्वपश्चात् अवस्थाओं में आत्माभेद का जो प्रतिभास होता है वह भ्रान्ति है' - तो यह ठीक नहीं है, भ्रान्ति की बात जूठी है क्योंकि उस अनुभव में कोई बाधक प्रतीति नहीं होती । यदि कहें कि – 'पूर्वपश्चादनुगामी यानी नित्य आत्मा को मानने में अर्थक्रिया का विरोध बाधक है, नित्य भाव में क्रमश: या एकसाथ, किसी भी प्रकार अर्थक्रिया संगत नहीं होती' – तो यह अयुक्त है चूँकि क्षणभंगुर होने से अनित्य भाव में ही 'अर्थक्रिया-असंगति' रूप बाधक व्यथाकारक है, वह बात पहले कही जा चुकी है। ___आत्मा को हम (स्याद्वादी) एकान्तनित्य नहीं मानते, विज्ञानाकार के अभेद से हम आत्मा में भी उत्पत्तिविनाश स्वीकारते हैं, अत: उस में एकान्तनित्यत्व नहीं किन्तु परिणामिनित्यत्वस्वरूप नित्यत्व मानते हैं। परिणाम के रूप में बदलते रहने पर भी अपने आत्मत्वादि मूलस्वरूप से स्थायी बने रहना यही परिणामिनित्यत्व है। यदि एकान्तनित्य मान कर उसकी उत्पत्ति-विनाश का बहिष्कार किया जाय तो वह गधेसींग की तरह असत् होने की विपदा खडी होंगी, क्योंकि जिस का किसी भी रूप में उत्पाद-विनाश नहीं होता वह गर्दभश्रृंग की तरह असत् होता है। यदि कहें कि - 'परिणाम के रूप में आत्मा के उत्पाद-विनाश मानेंगे तो निर्विकार आत्मा की कथा समाप्त हो कर उसे विकारी मानने की कथा चालु हो जायेगी।' - तो यह ठीक ही है, क्योंकि मूलस्वरूप से निर्विकार रहते हुए भी आत्मा में पूर्वापर विज्ञानपरिणाम के रूप में कथंचित् सविकारता मानने में कोई संकट नहीं है । कथंचित् सविकारता मानने में नित्यत्व के साथ विरोध खडा होने की चिन्ता भी निरर्थक है क्योंकि आत्मद्रव्यत्वरूप से आत्मा में कथंचित् नित्यत्व भी अनुभवसिद्ध ही है। ऐसा नहीं कह सकते कि 'आत्मा में आत्मद्रव्यत्वरूप से स्थायित्व For Personal and Private Use Only Jain Educationa International www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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