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________________ २१९ पञ्चमः खण्डः - का० ५० __ अत एव 'एकावयवसहितस्य पटस्योपलम्भात् एकरूपोपलम्भेऽपि आश्रयाऽव्यापितया शेषरूपाणामनुपलम्भाच्चित्रप्रतिभासाभावः' इति यदुक्तम् तदपि निरस्तम्, एकरूपोपाध्युपकारकशक्त्यभिन्नस्य पटद्रव्यस्य निश्चयात्मनाध्यक्षेण ग्रहणेऽशेषरूपोपाध्युपकारकशक्त्यभिन्नात्मनस्तस्यैकरूपतया ग्रहणालुपकार्यग्रहणमन्तरेण उपकारकत्वग्रहणस्याऽसम्भवात् शक्तीनां ततो भेदे सम्बन्धाऽसिद्धेरपरोपकारकशक्तिप्रकल्पनायामनवस्थाप्रसक्तेः कथं नाशेषोपकार्यरूपप्रतिभासाच्चित्रप्रतिभासप्रसक्तिः ? एतेन 'तन्तूनां नीलाद्यनेकरूपसम्बन्धित्वात् पटेऽप्यनेकरूपारम्भकत्वे न किञ्चिद् बाधकं प्रमाणं कारणगुणपूर्व-क्रमेण तथाविधस्य रूपस्योत्पादात्' इत्यपि प्रत्युक्तम् एकावयवप्रतिभासे चित्रप्रतिभासोत्पत्तिप्रसङ्गस्यैव बाधकत्वात् । यदपि भवतु वा एकं पटे चित्रं रूपम् नीलादिरूपैरेकरूपारम्भात् यथा हि शुक्लादिर्विशेषो रूपस्य तथा चित्रमपि रूपविशेष एव चित्रशब्दवाच्यः' इति तदपि असंगतमेव, अनेकाकारस्यैकत्वे लघुपरिमाणवाला मान लिया जायेगा तो परमाणु की तरह वह भी सपरिमाण हो जाने से द्रव्यात्मक प्रसक्त होगा, क्योंकि द्रव्य ही सपरिमाण होता है न कि रूपादि गुण । * एक रूप के उपलम्भ में चित्रप्रतीति क्यों नहीं ? * यह जो किसी का कहना है कि - 'चित्र वस्त्र में अनेक अव्याप्यवृत्तिरूप होते हैं । जब एक विभाग के साथ साथ अवयवी वस्त्र का प्रत्यक्ष होता है तब किसी एक रूप का दर्शन होता है, अन्य रूपों का दर्शन नहीं होता, इस लिये वहाँ चित्रप्रतिभास नहीं होता ।' - यह भी पूर्वोक्त विवेचन से निरस्त हो जाता है । जैसे पहले आधेय-आधार का मुद्दा लेकर बात कही गयी है वैसे यहाँ उपकार्य-उपकारक भाव को मुद्दा बना कर यह कहना होगा - रूप उपाधि है और अवयवी उपधेय है, उपधेय उपकारक है और उपाधि उपकार्य है, उपधेय में किसी एक रूपात्मक उपाधि के ऊपर उपकार करने की जो शक्ति होती है वही उस उपधेय (अवयवी) अन्तर्गत अन्य सभी रूपों के लिये भी अभिन्न ही होती है । वह शक्ति भी उपकारक अवयवी से अभिन्न ही होती है । इस स्थिति में जब एक रूप के साथ साथ स्वोपकारक शक्ति से अभिन्न पटद्रव्य का निश्चयात्मक प्रत्यक्ष से ग्रहण होगा तब अन्य सर्वरूपों की उपकारक शक्ति से अभिन्न पटद्रव्य का ग्रहण होने से तदन्तर्गत सकल रूपों का भी ग्रहण अवश्य होना चाहिये, क्योंकि उपकारक की प्रतीति उपकार्य प्रतीति की अविनाभाविनी होती है । अतः अवयविगत अनेक असमान अव्याप्यवृत्ति रूपों में से किसी एक का भी ग्रहण होने पर सभी का ग्रहण होने से पुनः चित्रप्रतिभास होने की विपदा प्रसक्त है । * एक अवयव के उपलम्भ में चित्रप्रतीतिप्रसंग तदवस्थ * उपरोक्त विवेचन के आधार पर ही, यह भी कथन निरस्त हो जाता है कि - 'नील-पीतादि अनेक रूपवाला विभिन्न तन्तुसमुदाय अपने वस्त्रस्वरूप अवयवी में भी अनेक नील-पीतादि रूपों को जन्म दे सकता है । इस तथ्य को बाधा पहुँचानेवाला कोई प्रमाण मौजूद नहीं है, क्योंकि कार्यद्रव्य में कारणगुण-अनुरूप कार्यगुणों का, प्रस्तुत में अनेकविध रूप का जन्म हो सकता है ।' – निरस्त इस लिये है कि यहाँ पर भी पूर्ववत् एक अवयव का दर्शन होने पर चित्र-प्रतिभास होने का अतिप्रसंग ही बाधक है । तदुपरांत जो किसी का यह कहना है कि - 'वस्त्र अवयवी में अनेक रूप न मान कर एक ही चित्ररूप का स्वीकार उचित है । अवयवों के नील-पीतादिरूपों से मिल कर एक ही रूप का जन्म होता है। श्वेत-पीतादि जैसे र है वैसे ही चित्र भी रूप का ही अवान्तर विशेष है और उस के लिये 'चित्र' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं।' – यह कथन भी असंगत ही है क्योंकि चित्ररूप नील-पीतादि अनेकाकारवाला तो दीखता ही है, जब Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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