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________________ १९६ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ___अथ 'इह' इति समवायनिमित्ताया बुद्धेरभिन्नाकारतया सर्वत्रानुगमादेकः समवायः सर्वत्रावसीयेत, तदेकत्वेऽपि द्रव्यत्वादिनिमित्तानां प्रत्ययानां प्रतिनियताधारावच्छेदेनानुयायितयोत्पत्तेव्यत्वादीनां भेद इति न पदार्थपञ्चकस्य संकीर्णताप्रसक्तिः । यथा हि दधि-कुण्डयोः संयोगैकत्वेऽपि आधार्याधेयप्रतिनियम उपपत्तिमान् तथा समवायैकत्वेऽपि द्रव्यत्वादीनां व्यङ्ग्यव्यञ्जकशक्तिभेदा(दा)धाराधेयप्रतिनियमोपपत्तेरसंकीर्णपदार्थव्यवस्था संगतैव प्रमाणनिबन्धनत्वात् प्रमेयव्यवस्थायाः इति । असदेतत्, यतो नास्माकं रूपत्वादीनां रूपादिष्वाधेयनियमः सिद्धः, भवतां पुनः समवायमेकं सर्वत्राऽभ्युपगच्छतां प्रतिनियमो दुर्घटः प्रसज्येत । तथाहि – 'द्रव्य एव द्रव्यत्वम्' इत्येवं नियमः समवायनिबन्धनो भवद्भिरभ्युपगम्यते, द्रव्यत्वादेः समवायस्य च गुणादिष्वप्येकस्यैव सद्भावात् कथं न पदार्थसंकरप्रसङ्गः द्रव्यत्वाद्याधेयत्वस्याभिन्ननिमित्तत्वात् ? अथ द्रव्ये द्रव्यत्वस्य यः समवायः न स एव गुणादिषु गुणत्वादेस्तर्हि संयोगवत् समवायस्य प्रत्याधारं भेदः स्यात् । अथ स्वरूपेणाऽभिन्नस्यापि समवायस्य द्रव्यत्वादिविशेषणभेदाद् भेद इति न पदार्थसंकरः । ननु * एक समवाय पक्ष में पदार्थपंचक सांकर्यदोष अनिवार्य * यदि यह कहा जाय – समवायमूलक 'यहाँ' इस प्रकार की अभिन्नाकारावगाहि बुद्धि सर्वत्र द्रव्यगुणादि में अनुगत होने से समवाय का एकत्व सिद्ध होता है । समवाय एक होने पर भी पदार्थपंचक में सांकर्य दोष को अवकाश नहीं है, क्योंकि द्रव्यत्वादि के बल पर होने वाली प्रतीतियाँ नियताधारावच्छिन्न ही होती है, गुणादि में द्रव्यत्वमूलक प्रतीति का अनुगम नहीं होता इसलिये द्रव्यत्व-गुणत्वादि उपाधियों का भेद सिद्ध होता है । उदा० दहीं और कुंड के बीच एक ही संयोग सम्बन्ध होने पर भी कुंड ही आधार और दहीं ही आधेय - ऐसा नियत आधार-आधेयभाव होने में पूर्ण संगति है. इस तरह समवाय एक होने पर भी द्रव्य ही द्रव्यत्वजाति का व्यंजक और द्रव्यत्व उस से व्यंग्य ऐसा शक्तिभेद होने से नियत आधार-आधेय भाव भी घट सकता है अतः पदार्थों की व्यवस्था में असंकीर्णता सुरक्षित रहती है । आखिर तो प्रमेयव्यवस्था प्रमाणमूलक ही होती है, समवाय की एकता और असंकीर्ण पदार्थव्यवस्था दोनों प्रमाणसिद्ध है अतः कोई आपत्ति नहीं है । - यह विधान भी गलत है, क्योंकि हमारे मत में तो रूपादि में रूपत्वादि का आधेयनियम प्रमाणसिद्ध है ही नहीं, एवं आप के मत में वह प्रसिद्ध तो है किन्तु जब समवाय को आप एक मानते हैं तो उस आधेयनियम साधक प्रमाण में भी बड़ी बाधा उपस्थित हो जाती है फलत: वह आधारआधेयनियम भी दुर्धट बन जाता है। कैसे यह देखिये, 'द्रव्य में ही द्रव्यत्व वृत्ति हो' इस आधाराधेय नियम को आप समवायमूलक मानते हैं क्योंकि समवायसम्बन्ध के विना तो वह घट ही नहीं सकेगा । अब दूसरी ओर देखते हैं कि द्रव्यत्वादि का जो समवाय द्रव्य में है वही एक होने से गुणादि में भी है तब द्रव्य में समवाय से गुणत्व भी रह जायेगा तो पदार्थ सांकर्य दोष क्यों नहीं होगा जब कि द्रव्यत्वादि में आधेयता का प्रयोजक निमित्तभूत समवाय तो एक ही है ?! यदि यह कहा जाय कि द्रव्य में द्रव्यत्व का जो समवाय है और गुणादि में जो गुणत्वादि का समवाय है वह सर्वथा एक नहीं है -- तब तो जैसे आधारभेद से संयोग भिन्न भिन्न होता है वैसे समवाय भी भिन्न भिन्न मानना होगा । । * विशेषणभेद से औपाधिक समवायभेद दुर्घट * समवायवादी :- समवाय अपने स्वरूप में अभिन्न यानी एक ही है किन्तु द्रव्यत्वसमवाय, गुणत्वसमवाय... Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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