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________________ १७३ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ भिन्नत्वे भिन्नशक्तित्वात् । तथेहापि केचिद् भावाः प्रकृत्यैवैकाकारपरामर्शहेतवो भविष्यन्तीति न तदर्थं सामान्यप्रकल्पनं युक्तम् । ___ यदपि 'अनुगतप्रत्ययः पिण्डव्यतिरिक्तानुगतनिमित्तनिबन्धनः' इत्याद्यनुमानम् तत्र प्रतिज्ञाया अनुमानाबाधा। तथाहि - अनुगतप्रत्ययानां पिण्डव्यतिरिक्तमनुगतं निमित्तमालम्बनभूतं साधयितुमभिप्रेतम्, तच्चाऽयुक्तम् तस्य तत्राप्रतिभासनाद्, वर्णाऽऽकृत्यक्षराकारस्यैवार्थस्य तत्र प्रतिभासनाच्च तद्रूपविकलतया सामान्यस्य परैरभ्युपगमात् कथं तत्प्रतिभासे तस्य प्रतिभासः अन्याकारस्य विज्ञानस्यन्यालम्बनत्वेऽतिप्रसङ्गात् ? तथाहि – यो यद्विलक्षणार्थप्रतिभासः प्रत्ययः स तद्ग्राहको न भवति यथा रूपप्रत्ययो न रसादिग्राहकः, जातिविलक्षणपर्णादिप्रतिभासश्चान्वयी प्रत्यय इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः। ___योऽपि शंकरस्वाम्यत्राह – “सामान्यमपि नीलत्वादि नीलाद्याकारमेव, अन्यथा 'नीलम् नीलम्' वह औषध भिन्न होता है अतः उस में शक्ति भी भिन्न भिन्न होती है, अर्थात् प्रत्यग्र (ताजा) औषध शीघ्र लाभ करता है और पुराना हो तो विलम्ब से लाभ करता है यह भेद क्षणिकवाद में विना सामान्य के ही घट सकता है क्योंकि नूतन एवं पुराना औषध भिन्न होता है, उन में शक्ति भी भिन्न होती है। ठीक उसी तरह कुछ भाव स्वभाव से ही अनुगताकार परामर्श के हेतु बन सकते हैं अतः उसके लिये 'सामान्य' की कल्पना का कष्ट करने की जरूर नहीं रहती। * अनुगतनिमित्त साधक अनुमान बाधित है * सामान्यवादी ने जो अनुमानप्रयोग कहा था – अनुगतप्रतीति पिण्डों से पृथक् अनुगत निमित्त से प्रयोज्य है, क्योंकि वह अनुगताकार प्रतीतिस्वरूप है – इस प्रतिज्ञा में दूसरे अनुमान से बाधा उपस्थित है। पहले तो यह देखिये कि सामान्यवादी को अनुगतप्रतीतियों के विषयरूप में, पिण्डों से अतिरिक्त निमित्त सिद्ध करने की चाह है किन्तु वह युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि पिण्डों में वैसे सामान्य का प्रतिभास नहीं होता, प्रतीतियों में तो वर्णाकृतिअक्षराकार पदार्थ ही भासित होता है। नीलादि वर्ण, आकृति यानी वृत्तादि संस्थान, अक्षर यानी धेनु आदि शब्द - इन आकारों में पदार्थ प्रतीत होता है - जब कि सामान्यवादी सामान्य की प्रतीति को ऐसे आकार वाली नहीं मानते। सामान्य को वे लोग वर्णादिआकारशून्य ही मानते हैं। अतः यह प्रश्न तदवस्थ ही रहता है कि वर्णादिआकार अर्थ के प्रतिभास में सामान्य का प्रतिभास है ही कहाँ ? यदि एक आकार वाले ज्ञान को अन्य आकारवाला माना जायेगा तो गोआकार ज्ञान को अश्वाकार मानने की बड़ी आपत्ति होगी। यह बाधक अनुमान अब सप्रयोग देखिये - 'जो प्रतिभास जिस से विलक्षण अर्थ को विषय करता है वह उस अर्थ का ग्राहक नहीं होता, जैसे रूपप्रतिभास रस से विलक्षण अर्थ को विषय करता है तो रस का ग्राहक नहीं होता। विवादास्पद अनुगताकार प्रतिभास भी जाति से विलक्षण वर्णादिआकार अर्थ का प्रतिभासी होता है अतः वह जाति का ग्राहक नहीं हो सकता।' यहाँ तदर्थग्राहकता का व्यापक है तद्विलक्षणअर्थाग्राहकत्व, उसका विरोधी है तद्विलक्षणअर्थग्राहकत्व जिस की उपलब्धि यहाँ तदर्थग्राहकत्व के अभाव को सिद्ध करने के लिये हेतुरूप में उपन्यस्त है। * अनुमानबाध टालने का शंकरस्वामी का प्रयास व्यर्थ * शंकरस्वामी पंडितने कहा है – व्यक्ति जैसे नीलाकार है वैसे नीलत्वादि सामान्य भी नीलाकार ही . वर्णाकृत्यक्षराकारशून्यं गोत्वं हि वर्ण्यते - इति प्रमाणवार्त्तिके (२-१४७) वर्णो नीलादिः, आकृतिः संस्थानम्, अक्षरं गवादिशब्दः, तेषामाकारो यथाप्रतीतः, तेन शून्यं गोत्वं हि सामान्यवादिभिर्वर्ण्यते ।। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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