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________________ पञ्चमः खण्डः - का० ४९ सामर्थ्यलक्षणाया ज्ञानस्यात्मभूतायास्तस्याः स्मृतिहेतुत्वेनास्माभिरप्यभ्युपगमात् । अथात्मगुणस्वरूपा भावना साधयितुमभिप्रेता तदा तया तथाभूतया स्मृत्यादेः क्वचिदप्यन्वयासिद्धेरनैकान्तिकता हेतोः, प्रतिज्ञायाश्वानुमानबाधितत्वम् तदाधारस्यात्मनः पूर्वमेव निराकृतत्वात् तदभावे तस्या अप्यभावात् । तथाहि – ये यदाश्रितास्ते तस्याभावेऽवस्थितिं न प्रतिलभन्ते यथा कुड्याभावे चित्रादयः, आश्रिताश्च परेणात्मनि संस्कारादयोऽभ्युपगम्यन्त इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । स्थितिस्थापकस्तु संस्कारोऽत्यन्तमसंगत एव । तथाहि - असौ किं स्वयमस्थिरस्वभावं भावं स्थापयति उत स्थिरस्वभावमिति पक्षद्वयम् । यदि अस्थिरस्वभावम् तदा क्षणादूर्ध्वं तस्य स्वयमेवाभावात् कस्यासौ स्थापकः स्यात् ? अथ द्वितीयः पक्षः, तदा स्थिरे स्वभावेऽवस्थितानां भावानां तादूप्यादेवावस्थानात् किमकिञ्चित्करस्थापकप्रकल्पनया ? न च क्षणिकत्वेऽपि भावानामेकक्षणावस्थितानु(?)त्तरकालं स्थापकस्य सामर्थ्यमंगीक्रियते यतः स्वरूपप्रतिलम्भलक्षणैव भावानां स्थितिरुच्यते न पुनर्लब्धात्मसत्ताकानाम् आत्मरूपसंधारणलक्षणोत्तरकालं स्वयं चलात्मन उत्तरकालमवस्थानाऽसम्भवात्, सम्भवे है । कारण, पूर्वानुभव से जिस में स्मृतिजनक सामर्थ्य का आधान होता है वैसी ज्ञानमय-ज्ञानस्वरूप 'वासना' संज्ञक संस्कार को हम भी स्मृतिजनक मानते हैं । आप को यदि ज्ञान से अतिरिक्त आत्मगुणस्वरूप भावना की सिद्धि अभिप्रेत है तो वैसी स्वतन्त्र भावना के साथ स्मृतिआदि की व्याप्ति कहीं भी सिद्ध नहीं है अतः साध्य असिद्ध रहने पर हेतु साध्यद्रोही ठहरेगा । दूसरी ओर पूर्ववत् प्रतिअनुमान से आप के प्रयोग में बाधा प्राप्त होगी। स्मृतिरूप प्रतीति पूर्वपक्षिअभिमत संस्कारनिरपेक्ष अपने हेतु से उत्पन्न होती है क्योंकि वह स्मृतिरूपप्रतीति है... इत्यादि प्रतिअनुमान स्वयं जान लेना । तथा, भावना का आधारभूत जो एकान्त नित्य आत्मद्रव्य है उसका पहले ही निरसन हो चुका है, अतः आत्मद्रव्य के अभाव में 'भावना' संस्कार का भी अभाव फलित हो जाता है । यहाँ अनुमान ऐसे भी हो सकता है, जो जिस के आश्रित माने जाते हैं वे उसके विरह में अवस्थित नहीं रह सकते, उदा० भित्ती के विरह में चित्रादि । प्रतिवादी संस्कारादि को आत्मा के आश्रित मानता है अतः आत्मा के निषेध से उनका निषेध फलित होता है । यहाँ संस्कारादि की स्थिति की व्यापक है आत्मस्थिति, उस के विरुद्ध यानी आत्माभाव की उपलब्धि यहाँ हेतु है, उस से संस्कारादि का निषेध सिद्ध होता है । * स्थितिस्थापक संस्कार की कल्पना निरर्थक * स्थितिस्थापक संस्कार तो अत्यन्त अयुक्त है । कैसे यह देखिये - भाव जो स्वयं अस्थिरस्वभाव है उसका यह स्थापक है या जो स्वयं स्थिरस्वभाव है उसका स्थापक होगा ? दो विकल्प हैं । अस्थिरस्वभाववाला भाव तो क्षणभंगुर होने से दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जायेगा, फिर किसका स्थापक संस्कार होगा ? दूसरे विकल्प में, जो स्थिरस्वभाववाले भाव हैं वे तो अपने स्वरूप में सदावस्थित रहने के स्वभाववाले ही हैं, संस्कार क्या उसका स्थापन करेगा ? उस का कुछ काम ही नहीं है । अकिञ्चित्कर स्थापक की कल्पना से क्या लाभ ? यदि पहले विकल्प में फिर से यह कहा जाय कि - ‘भाव क्षणिक है, एक क्षण तो वह अपने आप रहेंगे, उत्तरक्षणों में उसकी स्थिति बनाये रखने में संस्कार सार्थक होगा । हम उस में वैसा ही सामर्थ्य मानते हैं।' - तो यह गलत है, क्योंकि भावों की स्थिति का मतलब है भावों को स्वसत्ता की प्राप्ति । जो प्रथमक्षण में लब्धसत्ताक भाव है उसको संस्कार से क्या सत्ता उपलब्ध होगी जिस से उसको स्थापक माना जाय ? क्षणिक भाव ने प्रथम क्षण में तो आत्मस्वरूपधारण स्वयं किया है, दूसरे क्षण में वह स्वयं चलस्वभाव होने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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