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श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् द्रव्यं तद्गतैकत्वादिसंख्यातो गुणादीनां तदेकार्थसमवायात् । नन्वेवम् ' एकस्मिन् द्रव्ये रूपादयो बहवो गुणाः' इति ज्ञानोत्पत्तिर्न स्यात् तदाश्रयद्रव्ये बहुत्वसंख्यायाः अभावात् ।
‘षट् पदार्थाः’ ‘सुख-दुःखे' 'इच्छा-द्वेषौ ' 'पञ्चविधं कर्म ' 'परमपरश्च द्विविधं सामान्यम्' 'एको भावः’ ‘एकः समवायः' इति व्यपदेशेषु च किं निमित्तमिति वक्तव्यम् । न ह्यत्रैकार्थसमवायिनी संख्या विद्यते इत्यव्यापिनीयमपि कल्पना न युक्तिसंगता । भवतु वैकार्थसमवायादन्यतो वा स्वप्रकल्पिताद् हेतोरयं प्रत्ययस्तथापि गुणादिगतमुख्यसंख्याऽभावतः स्खलद्वृत्तिः स्यात् माणवके सिंहप्रत्ययवत्, न चैवमुपलभ्यते इति संकेतमात्रनिबन्धन एव सर्वत्राभ्युपगन्तव्यः । यदपि गज-तुरग- स्यन्दनादिदूसरी बात यह है कि गो-वाहक को देखने पर 'यह गौ - जैसा है लेकिन गौ तो नही क्योंकि यहाँ गलगोदडी नहीं है' इस प्रकार गौ-विषयक ज्ञान स्खलित होता है इस लिये उस को कुछ सीमा तक गौण कह सकते हैं, लेकिन गुण के बारे में जो संख्या का ज्ञान होता है वह 'यह गुण एक जैसा है किन्तु एक ही नहीं है, इस प्रकार से स्खलित अनुभव नहीं होता; जैसी अस्खलित बुद्धि घटादि में संख्या की होती है वैसी ही गुणादि में भी होती है अतः 'एक को मुख्य, दूसरे को गौण' ऐसा पक्षपात उचित नहीं है ।
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पूर्वपक्षी :- हम ऐसा नहीं कहते हैं कि गुण में संख्या का ज्ञान गुण में घटादि के सादृश्य के प्रभाव से होता है अतः वह गौण है । किन्तु गौण इस लिये है कि गुण के आश्रयभूत जो द्रव्य हैं उस में एकत्वादिसंख्या भी रहती है और गुणादि भी, अतः उन के एकार्थ यानी समानार्थ में समवाय से निवास होने के कारण गुणों में संख्याविषयक गौणबुद्धि, संख्या के न रहने पर भी हो जाती है ।
उत्तरपक्षी :- द्रव्यगत संख्या के एकार्थसमवाय से यदि गुणों में गौण संख्याप्रतीति को मानेंगे तो 'एक द्रव्य बहु गुण हैं' ऐसी प्रतीति असम्भव हो जायेगी, क्योंकि यहाँ गुणों के आश्रयभूत एक द्रव्य में बहुत्व संख्या ही नहीं है । अतः एकार्थसमवाय की बात गलत है ।
* संख्या की व्यवस्था में एकार्थसमवाय निरुपयोगी
एकार्थसमवाय से संख्या की व्यवस्था बहुत संकुचित है, जितनी व्यापक होनी चाहिये उतनी नहीं है, क्योंकि 'छः पदार्थ' इस व्यवहार में षट्त्व संख्या एकार्थसमवाय से पदार्थों में नहीं मानी जा सकती क्योंकि किसी एक द्रव्य में छः पदार्थ का षट्त्व के साथ एकार्थ समवाय नहीं होता । तथा 'सुख - दुःखे' यहाँ भी द्वित्व के साथ सुख दुःख उभय का एकार्थसमवाय नहीं होता, होता है तो किसी एक का होता है । 'पञ्चविधं कर्म' यहाँ भी किसी एक द्रव्य में कभी समुदित पाँच क्रिया नहीं होती अतः एकार्थ समवाय नहीं है । 'सामान्य पर अपर द्विविध होता है' यहाँ भी सामान्यगत परत्व और अपरत्व का एकार्थसमवाय नहीं है । 'भाव एक है' यहाँ भी भावसामान्य का एकार्थसमवाय नहीं है । 'एकः समवायः' यहाँ समवाय कहीं भी समवाय से नहीं रहता । तब दिखाना चाहिये कि यहाँ संख्या के व्यपदेश का पदार्थादि से अतिरिक्त कौन सा निमित्त है ? संख्या तो एकार्थसमवाय से भी उपरोक्त रीति से पदार्थादि में रहती नहीं है । अतः एकार्थसमवाय की कल्पना भी अनुचित है ।
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अथवा मान लिया जाय कि एकार्थसमवाय या अन्य किसी न्यायमतकल्पित निमित्त से गुणादि में संख्या की प्रतीति होती है, किन्तु उस का फलितार्थ यह होगा कि द्रव्य में समवाय से जैसे मुख्य संख्या रहती है, गुणादि में वैसे समवाय से मुख्य संख्या नहीं रहती । अतः गुणादि में जो संख्याबोध होगा वह स्खलित वृत्ति यानी माणवक में सिंहोपचार की तरह औपचारिक होगा । किन्तु तथ्य यह है कि 'चौबीस गुण' इत्यादि प्रतीति
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