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________________ 10 प्रस्तावना व्रतादि पालन में और पिण्डविशुद्धि आदि के आचरण में जो निरन्तर व्यस्त बने रहते हैं किन्तु सामर्थ्य होने पर भी जैन एवं जैनेतर शास्त्र - सिद्धान्तों के अध्ययन में आवश्यक उद्यम छोड बैठते हैं एकान्त-अनेकान्त का विवेक नहीं रखते वे कभी भी निश्चयात्मक शुद्ध ज्ञानदर्शनोपयोग स्वरूप चरण-करण के निष्कलंक सार को प्राप्त नहीं कर सकते । ( गाथा ६७) क्रियाशून्य ज्ञान एवं ज्ञानशून्य क्रिया ये दोनों ही एकान्त अभिगम हैं जो जन्म-मरण के दुःखों के भय का निवारण करने में असमर्थ है । ( गाथा ६७ ) ऐसे अनेक रेड-सिग्नल दिखाते हुए श्री सन्मतिकारने वस्तुतः एकान्तवाद की कुवासना को तोड कर अनेकान्तवाद की सुगंध से अन्तःकरण को सुवासित करने के लिये निःसंदेह असीम उपकार किया है। समग्र ग्रन्थ के अन्तिम मंगल के रूप में श्री सन्मतिकार श्रीजिनवचन के कल्याण (प्रचंड उत्कर्ष) की कामना को अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं संविग्नजनों के लिये सुखबोध्य एवं अमृतनिः स्यन्दतुल्य भगवंत जिनवचन का कल्याण हो जो कि मिथ्यादर्शनों के समूहमय है । ( गाथा ६९ ) - — यहाँ श्रीजिनवचन को मिथ्यादर्शनों का समूह दिखाने का तात्पर्य समझने जैसा है। ऐसा नहीं है कि एक एक मिथ्यादर्शन के प्रतिपाद्य तत्त्वों को ग्रहण कर के जिनदर्शन की निष्पत्ति हुई । वास्तव में तो जिनदर्शन में प्रतिपादित अनेकानेक तथ्यों में से एक ( या दो / तीन) तथ्यों को पकड कर के उस की नींव पर ही मिथ्यादर्शनों ने अपने अपने दर्शनों की इमारत खडी की है। फिर भी जिनदर्शन को मिथ्यादर्शनसमूहमय कहने का तात्पर्य यह है कि एक बडे व्यापारी ने लाखों रूपये की पूँजी लगा कर अनेकानेक सेंकडों सेलआइटमों का डिपार्टमेन्टल स्टोर खोल दिया। उस के स्टोर से या अन्यों से एक / दो बिकाउ माल खरीद कर के छोटे छोटे व्यापारियों ने अगल-बगल में उसी बाजार में छोटी छोटी दुकान लगा दी । तब लोग कहते हैं कि भाई पूरा बाजार ही यहाँ इकट्ठा हो गया है, सारे बाजार में जो माल मिलता है (अरे ! उस छोटी छोटी दुकानों में जो नहीं मिलता, वह भी यहाँ ) इस स्टोर में मिलता है। इसी तरह अन्य अन्य दर्शनों में जो बात बतायी गयी है उस का पूरा समूह जैन- दर्शन में भी उपलब्ध होता है । हाँ- इतना विशेष है कि अन्य अन्य दुकानों में आप को हरा रंग मिलेगा तो नीला रंग नहीं मिलेगा, नीला रंग मिलेगा तो हरा रंग नहीं मिलेगा, कहीं दोनों ही मिलेंगे लेकिन सुंदर पेइन्टींग नहीं मिलेगा जब कि उस बडे स्टोर में आप को तय्यार सुंदर रेखांकन युक्त अनेक रंगो के समुदाय के रूप में अद्भूत चित्र मिल जायेगा । ऐसे ही अन्य अन्य दर्शनों में कहीं ज्ञान की बात होगी तो आचरण की बात नहीं मिलेगी, किसी में आचरण पर भार होगा तो ज्ञान की गन्ध नहीं होगी और कहीं पर दोनों होंगे लेकिन उस का सुचारु समन्वय नहीं होगा जब कि यहाँ जैन दर्शन में सम्यक्ज्ञान - सम्यग्दर्शन - सम्यक् चारित्र का अथवा सत्-असत् उभय का, नित्य - अनित्य उभय का, द्रव्य-पर्याय उभय का, भेद - अभेद उभय का बडा मनोहर सुश्लिष्ट संकलन देखने को मिलेगा । निष्कर्ष, अपनी जिज्ञासा को पूर्णरूप से संतोष करने वाला एक मात्र यह जैन दर्शन ही है । - Jain Educationa International ग्रन्थकर्त्ता श्री सिद्धसेन दिवाकर सूरिजी महाराज अपने समय में युगप्रधान आचार्य थे। जैनशासन की कीर्त्तिपताका को आपने समग्र भारतवर्ष में लहराई थी । सन्मति तर्क प्रकरण आदि अनेक ग्रन्थरत्नों की रचना कर के उन्होंने जैनशासन के दार्शनिक साहित्य की श्रीवृद्धि की है । संवत् प्रवर्त्तक विक्रमराजा आदि अनेक महानुभावों को प्रतिबोध कर के अनेक हितकर कार्यों का प्रवर्त्तन करवाया है। For Personal and Private Use Only - www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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