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________________ १०४ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् ब्धिः । यद्वा, ‘यदेकम् न तदनेकद्रव्याश्रितम् यथैकपरमाणुः, एकं चावयविसंज्ञितं द्रव्यमिति व्यापकविरुद्धोपलब्धिप्रयोगः प्रसंगसाधनरूपः । प्रयोगद्वयेऽपि अवयविनोऽवयवेषु वृत्त्यननुपपत्तिर्विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । सा चैकावयवक्रोडीकृतेन वा स्वभावेनावयव्यवयवान्तरे वर्त्तते उत स्वभावान्तरेण, प्रकारान्तराऽसम्भवात् ? यदि तैनैवेति पक्षः स न युक्तः तस्य तेनैवावयवेन क्रोडीकृतत्वात् अन्यत्र वर्तितुमशक्तेः, शक्तौ वा तत्रावयवे तस्य सर्वात्मना वृत्त्यनुपपत्तिः, अपरस्वभावाभावान्न तस्यापरावयववृत्तिस्वभावः, तद्भावे वा एकत्वहानिप्रसक्तेः । तथाहि - यदेकक्रोडीकृतम् न तत् तदैवान्यत्र प्रवर्त्तते, यथा एकभाजनक्रोडीकृतमाम्रादि न तदैव भाजनान्तरमध्यमध्यास्ते, एकावयवक्रोडीकृतं चावयविस्वरूपम् इति व्यापकविरुद्धोपलब्धिः । एकावयवसम्बद्धस्वभावस्यातद्देशावयवान्तरसंबद्धस्वभावताऽभ्युपगमे तदवयवानामेकदेशताप्रसक्तिर्विपर्यये बाधकं प्रमाणम् । एकदेशतायां चैकात्म्यम् अविभक्तरूपत्वात्, विभक्तरूपावस्थितौ चैकदेशत्वं न स्यात् । सम्भव नहीं है -- यह गलत बात है क्योंकि कल्पित गधेसींग की असत्यता की अपेक्षा से ही बैलसींग के लिये 'सत्य' का व्यवहार होता है वैसे ही कल्पित स्थूलत्व की अपेक्षा से ही अणुत्व का व्यवहार हो सकता है । निष्कर्ष :- अवयवों से अनारब्ध ऐसा स्थूल-एक द्रव्य न्यायसंगत नहीं है, तो फिर अवयवारब्ध तो कैसे न्यायसंगत हो सकता है ? नीलादि बाह्यविषय एक माना जाय तो अवयवारब्ध माना जाय या अनारब्ध, ये जो पहले दो विकल्प किये थे उन का यह निष्कर्ष, उपरोक्त चर्चा से अनायास फलित होता है । अनुमानप्रयोग इस प्रकार है - जो अनेक हैं वे किसी एक (अवयवी जैसे) द्रव्य से अनुगत (=व्याप्त) नहीं होता जैसे घटकुटी आदि (का समुदाय) । तन्तु आदि भी अनेकात्मक हैं अतः उन में भी कोई एक अनुगत अवयवी हो नहीं सकता । - इस प्रयोग में, एकद्रव्यानुगततारूप व्यापक का विरोधी है अनेकत्व, उस की उपलब्धि हेतुरूप में प्रयुक्त है अतः व्यापक विरुद्धोपलब्धिस्वरूप हेतुप्रयोग है । अथवा ऐसा प्रसंगापादन प्रयोग देखिये - जो एक होता है वह अनेकद्रव्यों में आश्रित नहीं होता जैसे एक परमाणु, अवयवीसंज्ञक द्रव्य भी एक माना गया है अतः वह भी अनेकाश्रित नहीं होना चाहिये । इस प्रयोग में प्रतिवादिमान्य अवयवी में अनेकद्रव्याश्रितत्व के भंग का आपादन किया गया है । यहाँ अनेकाश्रितत्व व्यापक है और एकत्व उसका विरोधी है इसलिये व्यापकविरुद्धोपलब्धिस्वरूप हेतुप्रयोग किया गया है । * अवयवों में अवयवी का वृत्तित्व दुर्घट * उक्त्त दोनों प्रयोगों के ऊपर अगर ऐसी विपक्ष शंका की जाय कि - अनेक अवयवों में एक अनुगत अवयवी क्यों नहीं हो सकता ? अथवा एक अवयवी क्यों अनेकाश्रित नहीं हो सकता ? तो विपक्षशंकाबाधक स्पष्ट प्रमाण यह है कि अवयवों में अवयवी की वृत्ति यानी स्थिति ही संगत नहीं होती । वृत्ति की असंगति इस प्रकार है - एक अवयवी जब अनेक अवयवों में रहेगा तो एक ही स्वभाव से सभी अवयवों में रहेगा या अलग अलग स्वभाव से अलग अलग अवयवों में रहेगा ? अर्थात् किसी एक अवयव में, उस अवयव की गोद में बैठ जाने के स्वभाव से वह जैसे बैठ जाता है, क्या उसी स्वभाव से वह अन्य अवयव की गोद में वृत्ति हो जाता है या अन्य स्वभाव से ? और तो कोई तीसरा विकल्प नहीं । यदि कहें कि उसी स्वभाव से, तो वह अयुक्त्त है, क्योंकि उस स्वभाव से तो वह एक ही अवयव से पकड लिया गया है अतः अन्य अवयव में उसी स्वभाव से ठहरने की शक्ति उस में कैसे हो सकती है ? यदि उसी स्वभाव से अन्य अवयव में भी रहने की शक्ति उस में होगी, तब तो पहले अवयव में उसकी सम्पूर्णतया वृत्ति ही नहीं घट सकेगी, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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