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________________ १०२ श्री सम्मति-तर्कप्रकरणम् किञ्च, अव्याप्यवृत्तिः संयोग इति यदि 'सर्वं द्रव्यं न व्याप्नोति' इत्ययमर्थः तदा द्रव्यस्य 'सर्व' - शब्दाऽविषयत्वाभ्युपगमादयुक्तः । अथ तदेकदेशवृत्तिः, तदसंगतम्, तस्यैकदेशाऽसम्भवात् । न च 'तदारम्भकेऽवयवे वर्त्तते' इत्यर्थप्रकल्पना, अवयवानामेव रक्तत्वात् तदवयविरूपस्याऽरक्तत्वप्रसक्त्तेर्युगपद् रक्ताऽरक्तरूपद्वयोपलब्धिः प्रसज्यते । किञ्च, तदारम्भकोऽपि अवयवो यद्यवयवीरूपस्तदा संयोगस्याऽव्याप्यवृत्तितया तत्राप्येकदेशवृत्तित्वमिति तुल्यः पर्यनुयोगः । अथ अणुरूपस्तदा अणूनामतीन्द्रियत्वात् तदाश्रितः संयोगोप्यतीन्द्रियः एवेति न रक्तोपलम्भो भवेत् । न च यथाऽङ्गुलीरूपस्याश्रयोपलब्धावेवोपलब्धिाप्तिस्तथा संयोगस्याश्रयोपलब्धावेवोपलब्धिर्न विद्यत इति वक्तव्यम्, संयोगस्यापि आश्रयानुपलब्धावनुपलब्धेरन्यथा घट-पिशाचसंयोगस्याप्युपलब्धिः स्यात् । एवं च अंगुलीरूपवद् रागस्यापि नहीं इस लिये उस को दृश्य नहीं मान सकेंगे, क्योंकि स्थूलता आदि तो अल्प-बहुत्वमूलक होने से अवयवी में रहते नहीं । एवं यह भी सोचना होगा कि स्थूल-सूक्ष्मादि का भेद जब अवयवों के अल्पबहुत्व से प्रयुक्त है तब अल्प-बहुत्व के जरिये सूक्ष्म-स्थूल रूप से उत्पन्न होनेवाले अल्प या बहुसंख्यक अवयवों के ही स्थूलसूक्ष्मादि व्यवहार भी संपन्न हो जायेगा, अब अवयवों से आरब्ध अवयवी की कल्पना की क्या जरूर है ? किसी भी कार्य में अवयवी की तो कोई शक्त्ति प्रसिद्ध रही नहीं, तो निष्प्रयोजन उसकी कल्पना क्यों की जाय ?! * 'अव्याप्यवृत्ति' शब्द का अर्थ क्या ? * यहाँ संयोग की अव्याप्यवृत्तिता पर भी विचार करना आवश्यक है कि वह क्या है ? 'जो सर्व (पूरे) द्रव्य में व्याप्त नहीं होता वह अव्याप्यवृत्ति' ऐसा अर्थ अगर किया जाय तो वह उद्द्योतकरादि के मत में मेल नहीं खायेगा, क्योंकि वे अवयवीरूप द्रव्य को 'सर्व' शब्द प्रयोग का विषय ही नहीं मानते हैं । यदि 'अवयवी के एक देश में रहना' यह अर्थ है तो वह असंगत है क्योंकि निरंश अवयवी का कोई देश यानी अंश ही नहीं होता । यदि ऐसी अर्थकल्पना करें कि 'अवयवी के आरम्भक अवयव में रहना' - तो वहाँ यह फलित होगा कि रंगसंसर्ग सिर्फ अवयवों में ही हुआ है, अवयवी में रंगसंसर्ग न होने से वह तो अरञ्जित ही रह जायेगा और वस्त्र को देखने पर रञ्जित अवयव और अरञ्जित अवयवी इस प्रकार एक साथ रञ्जित-अरञ्जित दो स्वरूप का उपलम्भ प्रसक्त होगा । तथा यह भी सोचना पडेगा कि अवयवी-आरम्भक अवयव भी यदि एक लघु अवयवीरूप ही होगा तो वहाँ भी संयोग अव्याप्यवृत्ति हो कर ही रहेगा । अर्थात् वहाँ भी एकदेशवृत्तित्व का अर्थ विचार करने पर पूर्ववत् दोषग्रस्त मालुम पडेगा । यदि 'एक देश वृत्तित्व' में एक देश अणुरूप माना जाय तो वह अतीन्द्रिय होने से, उस में रहा हुआ संयोग भी अतीन्द्रिय ही मानना होगा, फलतः रञ्जितत्व का उपलम्भ भी नहीं होगा। यदि यह कहा जाय - जैसे यह नियम है कि उँगली के रूप का उपलम्भ उस के आश्रयभूत उँगली का उपलम्भ होने पर ही होता है वैसे यह नियम नहीं है कि आश्रय का उपलम्भ होने पर ही संयोग की उपलब्धि हो – यही संयोग की अव्याप्यवृत्तिता है । अतः अणु अतीन्द्रिय होने पर भी रंगसंयोगात्मक रञ्जितत्व का उपलम्भ हो सकेगा ।' – तो यह ठीक नहीं है, क्योकि संयोग के लिये भी यह नियम है कि आश्रय का उपलम्भ न होने पर संयोग की उपलब्धि भी नहीं होती । यदि ऐसे नियम को नहीं मानेंगे तो घट और अतीन्द्रिय पिशाच के संयोग की उपलब्धि भी हो जायेगी । इस से तो यह निष्कर्ष फलित होगा कि 'आश्रय का उपलम्भ होने पर ही अपना उपलम्भ होना' यह नियम जैसे उँगली के रूप को लागु पडता है और वह Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003805
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages442
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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