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________________ ___10 खण्ड-४, गाथा-१ अथ कारणजातिभेदमन्तरेण न कार्यभेद उपपद्यते- तर्हि कारणशक्तिभेदमन्तरेणापि न कार्यभेद उपपद्यते इत्यभ्युपगन्तव्यम् । अथ यया शक्त्यैकमनेकाः शक्तीर्बिभर्ति - तत्राप्यनेकशक्तिपरिकल्पनेऽनवस्थाप्रसक्तेः - तथैव तद् अनेकं कार्यं विधास्यतीति न शक्तिभेदपरिकल्पना । असदेतत्- यतो न जैनस्यायमभ्युपगमः यदुत भिन्नाः शक्ती: कयाचित् प्रत्यासत्तिलक्षणया शक्त्या एकः कश्चिद्धारयतीति, किन्तु तत् तदात्मकम् तदपि तथाविधं न कस्याश्चित् शक्तेः अपि तु स्वकारणवशात्। न चैकस्यानेकात्मकत्वमदृष्टमेव परिकल्प्यते 5 अनेकरूपाद्यात्मकस्यैकस्य पटादेः प्रमाणतः प्रतिपत्तेः, अन्यथा गुण-गुणिभाव एव न भवेत्, समवायस्य तन्निमित्तस्याभावात् । ततो नित्यानि चेत् सकलकारणानि साकल्यजननस्वभावानि, सकलकालभाविसाकल्यस्य तदैवोत्पत्तिप्रसक्तिः । न चेत् तज्जननस्वभावानि नैकदापि तदुत्पत्तिः अतज्जननस्वभावात् सकृदपि तस्यानुत्पत्तेः । भेद तो कारणभेद के विना ही स्वतः हो जायेगा। * जातिभेद के बदले शक्तिभेद से कार्यभेद क्यों नहीं ? * पूर्वपक्ष :- एक समवायिकारण से सभी कार्यों की उत्पत्ति मानने पर कार्यों का वैविध्य लुप्त हो जाने के डर से हम मानते हैं कि कारण भी भिन्न भिन्न जातिवाले होने चाहिये- कारणों के जाति भेद के विना कार्यों का वैविध्य दुर्घट है। उत्तरपक्ष :- कार्यों के कालादिभेद की संगति के लिये पहले हमने कहा है कि सामर्थ्य (शक्ति) भेद के विना वह दुर्घट है। अब आपने कारणों के जातिभेद का नाम लिया, लेकिन जातिभेद से 15 अनेक कारणों को मानने के बजाय एक (ही समवायि)कारण में शक्तिभेद मान कर तत्प्रयुक्त कार्यभेद मानना बहुत ही अच्छा है। वही मानना चाहिये। पूर्वपक्ष :- शक्तिभेद मानने की भी जरूर नहीं है। एक व्यक्ति में ऐसी भी शक्ति मानना ही होगा जिससे कि वह अनेक शक्तियों को अपने में धारण कर के रख सके। यदि प्रत्येक शक्ति को धारण करने के लिये अनेक शक्तियों की कल्पना करेंगे तो पुनः उन शक्तियों को धारण करने के 20 लिये अनेक शक्तियों की पुनः पुनः कल्पना करनी पडेगी उस का अन्त नहीं होगा। अब सोचना है कि जिस शक्तिविशेष से एक व्यक्ति अनेक भिन्न भिन्न शक्तियों को धारण करेगी, उस शक्तिविशेष से एक व्यक्ति साक्षात् कार्यभेद का - विविध कार्यों का निष्पादन भी कर सकती है - इस तरह ही उस की कल्पना कर लो, फिर अनेक शक्तियों की कल्पना निरर्थक है। उत्तरपक्ष :- आपकी बात गलत है। जैनों का ऐसा सिद्धान्त नहीं है कि एक व्यक्ति अनेक शक्तियों 25 को समवायतुल्य किसी एक सम्बन्धस्थानीय शक्ति के प्रभाव से ही धारण कर रखे। जैनों का तो भेदाभेदवाद - अनेकान्तवाद सर्वोपरि प्रमुख सिद्धान्त है, एक व्यक्ति का भिन्न भिन्न शक्तियों के साथ कथंचित् अभेद ही है। अनेक शक्तिआत्मक ही एक व्यक्ति है। एक व्यक्ति का अनेकशक्तिमय स्वभाव भी किसी अन्य शक्ति के जरिये नहीं है किन्तु उस व्यक्ति के उत्पादक कारणों का ही वह प्रभाव होता है जिस से एक व्यक्ति भी अनेकशक्तिमयस्वभावसम्पन्न उत्पन्न होती है। 30 एक और अनेकशक्तिआत्मक, इस में कोई विरोध नहीं है। यह कोई अदृष्ट-अप्रसिद्ध कल्पना भी नहीं है। यह प्रमाणसिद्ध है कि एक ही वस्त्र अनेक रूप-स्पर्शादिआत्मक होता है, इस का अस्वीकार Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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