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सन्मतितर्कप्रकरण - काण्ड - २
विगमाद्, अन्यथावस्थातुरवस्थानामात्यन्तिकभेदप्रसक्ते:, केवलज्ञानं ततो विगतं भवति - इति सूत्रकृतोऽभिप्रायः ।।३५।।
सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अत्थपज्जाओ । केवलभावं तु पडुच्च केवलं दाइयं सुत्ते । । ३६ ।।
(व्याख्या) सिद्धत्वेनाशेषकर्मविगमस्वरूपेण पुनः पूर्ववदुत्पन्न एष केवलज्ञानाख्योऽर्थपर्याय उत्पादविगम-ध्रौव्यात्मकत्वाद् वस्तुनः, अन्यथा वस्तुत्वहाने: । यत् त्वपर्यवसितत्वं सूत्रे केवलस्य दर्शितं तत् तस्य केवलभावं सत्तामात्रमाश्रित्य कथंचिदात्माऽव्यतिरिक्तत्वात् तस्य, आत्मनश्च द्रव्यरूपत्वात् । । ३६ ।। ननु केवलज्ञानस्यात्मरूपतामाश्रित्य तस्योत्पाद - विनाशाभ्यां केवलस्य तौ भवतः, न चात्मनः केवलरूपतेति 10 कुतः तद्द्वारेण तस्य तावित्याह
विनाशवत् केवलज्ञानस्योत्पादोऽपि सिध्यत्समय इत्याह
(मूलम्)
कथंचिद् नष्ट हो कर सिद्ध आत्मा का नया जन्म होता है । संसारी आत्मा कथंचिद् नष्ट होने से उस से अनन्य ऐसा संसारी केवलज्ञान भी आत्मद्रव्यविनाशप्रयुक्त विनाश का अनुभव करता है। यदि इस तथ्य का इनकार किया जाय, तो आत्मरूप अवस्थावान् द्रव्य का और उस की अवस्थाएँ केवलज्ञानादि का एकान्त भेद प्रसक्त होगा । ( संघयणबल-वीर्यादि अवस्थाओं का नाश होने पर अवस्थावान् आत्मद्रव्य 15 के विनाश से कथंचित् केवलज्ञान का भी नाश मानना अभेदवाद में युक्तिसंगत है ।) इस प्रकार केवलज्ञान कथंचित् सपर्यवसित भी है, एकान्ततः अपर्यवसित नहीं । । ३५ । ।
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[ केवलज्ञान कथंचित् उत्पत्तिशील है ]
अवतरणिका :- सिद्धिगमनकाल में केवलज्ञान का जिस तरह नाश प्रदर्शित किया उसी तरह अब उत्पत्ति भी प्रदर्शित करते हैं
20 गाथार्थ :- वह (केवल ज्ञानरूप ) अर्थपर्याय सिद्धत्वरूप से पुनः उत्पन्न होता है। सूत्र में केवलत्व की अपेक्षा से केवल को ( अपर्यवसित) दिखाया है ।। ३६ ।।
व्याख्यार्थ :- सर्वकर्मविनाशरूप जो सिद्धत्व है उस अवस्था में केवलज्ञान संज्ञक अर्थपर्याय पूर्ववत् नया उत्पन्न होता है। जैनदर्शन में तो वस्तुमात्र उत्पाद-व्यय- स्थैर्य तीन गुणधर्मों से लिप्त ही होती है; तो संसारीअवस्थावाला केवलज्ञान नष्ट हो कर सिद्धावस्था का केवलज्ञान नया उत्पन्न होवे उस 25 में क्या आश्चर्य ? जिस वस्तु में उत्पादादि नहीं वह 'वस्तु' ही नहीं हो सकती । उत्पादादि तीन गुणधर्मों में से स्थैर्यांश ( ध्रुवांश) की विवक्षा करे तो केवलज्ञान अविनष्ट एवं अनुत्पन्न हो सकता है। अत एव आगमसूत्र में केवलज्ञान को ( प्रज्ञापना पद - १८, सूत्र २४१ ) केवलभाव यानी सत्तामात्र की दृष्टि से 'अपर्यवसित' दर्शाया गया है। आत्मा द्रव्यार्थतया नित्य है और केवलज्ञान नित्य आत्मा जुदा नहीं है अतः वह भी नित्य माना जाय तो संगत ही है ।। ३६ ।।
[ आत्मा और केवलज्ञान में भेदाशंका ]
अवतरणिका : प्रश्न : यदि केवलज्ञान आत्मा से जुदा नहीं है, तब आत्मा के उत्पाद-व्यय को ले कर केवलज्ञान के उत्पादव्यय तो दिखा सकते हैं, किन्तु आत्मा केवलरूप है नहीं, तो उस
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