SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 505
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 5 ४८६ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ घटादेलिङ्गिनो गमकतोपपत्तेः दर्शनं = सामान्यरूपं नास्ति द्रव्यरूपाणां चिन्त्यमानालम्बनपरमनोद्रव्यगतानां चिन्त्यविशेषाणां विशेषरूपतया बाह्यार्थगमकत्वात् तद्ग्राहि मनःपर्यायज्ञानं विशेषाकारत्वात् ज्ञानमेव, ग्राह्यदर्शनाभावाद् ग्राहकेऽपि तदभावः। ततो मनःपर्यायाख्यो बोधो नियमाद् ज्ञानमेवागमे निर्दिष्टो न तु दर्शनम् । केवलं तु सामान्यविशेषोपयोगैकरूपत्वात् केवलं ज्ञानं केवलं दर्शनं चेत्यागमे निर्दिष्टम् ।।१९।। तथा पुनरप्येकरूपानुविद्धामनेकरूपतां दर्शयन्नाह(मूलम्-) चक्खु-अचक्खु-अवहि-केवलाण समयम्मि दंसणविअप्पा। परिपढिया केवलणाणदंसणा तेण ते अण्णा ।।२०।। (व्याख्या) चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां स्वसमये दर्शनविकल्पा:- भेदाः परिपठिताः तेन दर्शनमध्ये पाठात् दर्शनमपि केवलं ज्ञानमध्ये पाठाद् ज्ञानमपि, अतो भिन्ने एव केवलज्ञानदर्शने। न चात्यन्तं तयोर्भेद 10 व्याख्यार्थ :- यतः मनःपर्यायज्ञान के विषयभूत परकीय मनोद्रव्य (पुद्गल) तत्त्वों का 'विशेष' स्वरूप से ही भान हो सकता है और जब वे मनोद्रव्य विशेषरूप से गृहीत हो तभी वे लिङ्ग बन कर मनःपर्यायज्ञान में चिन्तारूढ बाह्य घटादि लिङ्गि के गमक भाव से यानी बोधकता से संगत हैं. अत एव उन मनोद्रव्यों का दर्शन या सामान्यस्वरूप. मनःपर्यायज्ञान में भासित नहीं होता है इसलिये आगम में मनःपर्याय का सिर्फ ज्ञानरूप से ही निर्देश किया गया है। (तात्पर्य यह है 15 कि मनःपर्याय ज्ञान तो विशेषरूप से ही मनोद्रव्य का ज्ञाता होता है। यदि ये मनोद्रव्य मनःपर्यायज्ञान से विशेषरूप से गृहीत नहीं होंगे तो वे मनोद्रव्य मनःक्रिया विषयभूत बाह्य घटादि लिंगी के ज्ञापक ही नहीं हो पायेंगे।) मतलब कि, चिन्तन के आलम्बन भूत परकीय मनोद्रव्य जो कि चिन्तन से भिन्न नहीं है वे मनःपर्यायज्ञान से गृहीत हो कर, विशेषरूप से ही बाह्य चिन्तनविषयभूत घटादि के ज्ञापक बनते हैं। यही हेतु है कि विशेष का ही ग्राहक होने से मनःपर्याय ज्ञान विशेषाकार ही 20 होता है अतः वह विशेषग्राही होने से ज्ञानरूप से ही निर्दिष्ट होता है। जिस बोध का ग्राह्यरूप से जब दर्शन यानी सामान्य, विषयभूत नहीं है तो उस ग्राहक बोध में भी दर्शन का यानी सामान्याकार का अभाव होना यूक्तियुक्त है। जब कि केवल बोध तो सामान्य-विशेषोभयग्राहक होने से एकबोधात्मक होने पर भी उपयोगद्वयात्मक होने से आगमों में उस का 'केवलज्ञान-केवलदर्शन' इस प्रकार उभयरूप से निर्देश किया गया है।।१९।। 25 [ एकरूप केवलोपयोग की ज्ञानदर्शनोभयरूपता - जैनमत ] __अवतरणिका :- अनेकान्तकरूप एक बोध का निरूपण कर के अब एकरूप से आश्लिष्ट अनेकरूपता का निदर्शन करते हैं - गाथार्थ :- आगम में चक्षु-अचक्षु-अवधि-केवल ऐसे दर्शनभेद परिगणित हैं अतः वे केवलज्ञान और केवलदर्शन भिन्न हैं।।२०।। 30 व्याख्यार्थ :- अपने जैन शास्त्रों में दर्शन के चार विकल्प यानी भेद दिखाये गये हैं १-चक्षुदर्शन, २-अचक्षुदर्शन, ३-अवधिदर्शन, ४-केवलदर्शन। इस तरह दर्शन के भेदों में पठित होने के कारण केवल भी एक दर्शन है। पाँच मतिआदि ज्ञान में पठित होने से केवल एक ज्ञान तो है ही। इस से सिद्ध Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy