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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ कारणम् अन्यथा कर्मक्षयार्थमनशनादितपस्युद्यमवतः प्राणवृत्तिप्रत्ययं तस्यामवस्थायामशनाद्यभ्यवहरणमसङ्गतं स्यात्। न च प्राक् क्षायोपशमिकं तस्य वीर्यं कैवल्यावस्थायां तु क्षायिकं तदिति विशिष्टाहारमन्तरेणापि शरीरस्थितिनिबन्धनम्, तत्सद्भावेऽपि शरीरस्थितिनिमित्तशयनोपवेशादिवत् प्रकृताहारस्याप्यविरोधात्। न
चोपवेशादिकमपि शरीरस्थित्यर्थं तत्राऽसिद्धम् समुद्घातावस्थानन्तरकालं पीठफलकादिप्रत्यर्पणश्रुतेस्तद्ग्रहण5 मन्तरेण तत्प्रत्यर्पणस्याऽसंभवात् तद्ग्रहणस्य च यथोक्तप्रयोजनमन्तरेणाभावात् अन्यथाऽप्रेक्षापूर्वकारितापत्तेः।
की तरह आयुष कर्म भी अघाती होने से उसे भी दग्धरज्जुतुल्य मानने में कौन सा बाध है ?) वैसे दग्धरज्जुतुल्य वेदनीयकर्मोदय से साता/असाता कार्य भी ऋजु भाव से स्वीकार लेना चाहियेयानी क्षुधा की पीडा एवं उस के शमनार्थ भोजन भी केवली में निर्बाध सिद्ध होता है, क्योंकि अघातीकर्म
के रूप में आयुष्कर्म एवं वेदनीय कर्म में कोई फर्क नहीं है। 10 ऐसा प्रश्न अनुचित है कि - भूख दुःखात्मक है, केवली भगवान् में उस का सम्भव कैसे ?
श्री तत्त्वार्थसत्र (जो श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों को मान्य है उस) में 'एकादश जिने (९-११) इस सत्र से केवलि में भी क्षुधादि ग्यारह परिषहों का स्पष्ट विधान है।
[ अनन्तवीर्यता के साथ कवलाहार अविरुद्ध ] दिगम्बरने जो यह कहा था - (४६७-११) 'कवलाहार के विना भी केवली अनन्तवीर्यशाली 15 होने से शरीरस्थितिकार्य बन सकता है।' – उत्तर यह है कि शास्त्रों में श्रुत है कि भगवान् छद्मस्थावस्था
में भी प्रचंडबलशाली होते हैं। जब छद्मस्थावस्था में अनन्तवीर्य सिद्ध है तो छद्मस्थावस्था में भी कवलाहार के विना हजारों वर्षपर्यन्त शरीरस्थिति क्यों नहीं टीकती ? यदि उस अवस्था में भी कवलाहार नहीं मानेंगे तो कर्मक्षय के लिये भगवान् जब अनशनादि तप का उद्यम करते हैं तब छद्मस्थावस्था में
दो तप के बीच प्राणवृत्तिसंरक्षण के लिये अशनादिआहारग्रहणस्वरूप पारणा क्यों करते हैं ? वह तो 20 अयुक्त हो जायेगा। यदि कहा जाय – ‘छद्मस्थावस्था में तो क्षायोपशमिक वीर्यलाभ होता है इस लिये
(क्षयोपशम प्रवृत्त रखने के लिये) आहार करना जरूरी है, कैवलि-अवस्था में क्षायिक वीर्य होता है (जो स्वतः प्रवृत्त होता है) अतः कवलाहार के विना भी वह शरीरस्थिति का कारण है। - तो यह भी गलत कथन है, क्योंकि क्षायिक वीर्य के होते हुए भी शरीरस्थिति के लिये (विश्रामार्थ) शयन
उपवेशनादि क्रियाएँ करनी पड़ती हैं तो आहारग्रहणक्रिया करनी पडे उस में क्या विरोध है ? शरीरस्थिति 25 के लिये सोने-बैठने की क्रिया केवली में नहीं होती ऐसा नहीं है, समुद्धातक्रिया के बाद अन्तकाल
में केवली पहले से गृहीत पीठ-फलकादि का प्रत्यर्पण कर देते हैं ऐसा शास्त्रों में निर्देश है। ग्रहण करते होंगे तभी वापस देते होंगे। शरीरस्थिति (विश्रामादि) प्रयोजन न हो तो पीठादि ग्रहण की जरूर नहीं रहती। यदि विना प्रयोजन ही ग्रहण कर लेंगे तो प्रेक्षापूर्वकारिता कलंकित होगी। ....... काययोगे जुंजमाणे आगच्छेज्ज वा गच्छेज्ज वा चिटेज्ज वा णिसीएज्ज वा तुयट्टेज्ज वा उल्लंघेज्ज वा पलंघेज्ज वा, पडिहारियं पीढ-फलग-सेज्जा-संथारगं पच्चप्पिणेज्जा ।। इति प्रज्ञापनोपांगे समुदघाताख्ये षट्त्रिंशत्पदे एकोनत्रिंशत्सूत्रमध्ये।
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