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खण्ड-४, गाथा-२/३, केवलद्वयभेदाभेदविमर्श . अत्र च सामान्यविशेषात्मके प्रमेयवस्तुनि तद्ग्राहि प्रमाणमपि दर्शनज्ञानरूपम् तथापि छद्मस्थोपयोगस्वाभाव्यात् कदाचिद् ज्ञानोपसर्जनो दर्शनोपयोगः, कदाचित्तु दर्शनोपसर्जनो ज्ञानोपयोग इति क्रमेण दर्शनज्ञानोपयोगौ। क्षायिके तु ज्ञान-दर्शने युगपद्वर्तिनी इति दर्शयन्नाह सूरि:(मूलम्) -मणपज्जव-णाणतो णाणस्य य दरिसणस्स य विसेसो।
केवलणाणं पुण दंसणं ति णाणं ति य समाणं ।।३।। 5 मनःपर्यायज्ञानम् अन्तः = पर्यवसानं यस्य विश्लेषस्य स तथोक्तः ज्ञानस्य च दर्शनस्य विश्लेषः = पृथग्भावः, मत्यादिषु चतुर्षु ज्ञानदर्शनोपयोगी क्रमेण भवत इति यावत् । तथाहि- चक्षुरचक्षुरवधिज्ञानानि चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनेभ्यः पृथक्कालानि छद्मस्थोपयोगात्मकज्ञानत्वात् श्रुत-मनःपर्यायज्ञानवत्। वाक्यार्थविशेषविषयं श्रुतज्ञानम् मनोद्रव्यविशेषालम्बनं च मन:पर्यायज्ञानम् । एतद्वयमपि अदर्शनस्वभावं मत्यवधिज्ञानदर्शनोपयोगाद् भिन्नकालं सिद्धम्।
तृतीयगाथाअवतरणिका :- प्रमेय तत्त्व जब सामान्यविशेष उभयात्मक है तो उस का परिच्छेदक प्रमाण भी दर्शन-ज्ञान उभयात्मक होना अनिवार्य है। फिर भी छद्मस्थ ज्ञाताओं के उपयोग का स्वभाव ही ऐसा है कि दर्शन-ज्ञान के दो उपयोग क्रमिक ही होते हैं। कदाचित् ज्ञान का प्रमोष (अप्रकाश) हो कर दर्शनोपयोग प्रवृत्त होता है तो कभी दर्शन अप्रकाशित रहते हुए ज्ञानोपयोग प्रवृत्त होता है। दूसरी ओर क्षायिक ज्ञान और दर्शन एकसाथ ही प्रवृत्त रहते हैं - (अथवा एक ही हैं) - इसी 15 तथ्य को आचार्य प्रदर्शित करते हैं -
___ गाथार्थ :- मनःपर्यायज्ञानपर्यन्त ज्ञान और दर्शन का पृथग्भाव होता है। केवलज्ञान तो दर्शन (कहो) या ज्ञान (कहो) समान ही है। (गाथा में विसेस शब्द विश्लेषार्थक है) ।।३।।
टीकार्थ :- मनःपर्यव ज्ञान जिस का अन्त यानी पर्यवसान है ऐसा विश्लेष (अलगाव) यह है मनापर्यवज्ञानान्त विश्लेष। ज्ञान और दर्शन का विश्लेष यानी पृथग्भाव है, मतलब कि मति आदि 20 चार बोध में ज्ञान और दर्शन का उपयोग क्रमशः होता है। देखिये - चाक्षुष ज्ञान अचाक्षुष ज्ञान और अवधिज्ञान ये सब चक्षुदर्शन अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन से भिन्नकालीन होते हैं, क्योंकि छद्मस्थ के ज्ञानोपयोगरूप हैं। उदा० श्रुतज्ञान मनःपर्यायज्ञान से भिन्नकालीन होता है। तात्पर्य, श्रुतज्ञान वाक्यार्थ विशेषसंबन्धि होता है जब कि मनःपर्यायज्ञान मनोद्रव्यविशेष सम्बन्धि होता है, ये दोनों दर्शनस्वभावि न होने, से मतिज्ञान-अवधिज्ञान और दर्शनोपयोग से भिन्नकालीन होते हैं यह सुविदित है। 25
'केवल' संज्ञक बोधस्वरूप केवलज्ञान तो दर्शनस्वरूप मानो या ज्ञानस्वरूप, केवलात्मक वे दोनों समान ही है, यानी दोनों समानकालीन या एककालीन ही है। (श्री सिद्धसेन दिवाकरसूरिजीने इन दोनों को एक ही माना है, किन्तु टीकाकार ने अग्रिम गाथाओं के अनुरोध से 'समान' का अर्थ आपाततः समानकालीन ऐसा किया है - यह ध्यान में रखा जाय ।)
A.तृतीयगाथाया आरभ्य त्रयस्त्रिंशत्पर्यन्ताः गाथाः यशोविजयोपाध्यायपादैः स्वोपज्ञटीकायुक्तज्ञानबिन्दुग्रन्थे १०३ परिच्छेदात् १७३ पर्यन्तपरिच्छेदेषु विशिष्टरीत्या व्याख्याताः। (ज्ञानबिन्दु पृष्ठ १३५ तः १९१ पृष्ठेषु द्रष्टव्यम् ।)
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