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खण्ड-४, गाथा-१
४३५ शब्दे नित्यत्वस्य गमकं स्यात्' ( ) इति परोक्तमपास्तम्, यतः चाक्षुषमनित्यत्वाऽविनाभावि, शब्दश्चाक्षुषो न भवतीति कुतोऽत्र दोषावकाशः ?
यदपि- 'यदि धूमोऽग्न्यविनाभावित्वमात्रादग्निं गमयेत् महाम्बुराशौ किं न गमयेत् ?' (३७६९) इति चोद्यम्- तदप्यसंगतम् । यतो नान्यदेशे धूमोऽम्भोनिधिपावकाविनाभावी सिद्धः तद्देशसाध्याविनाभावित्वात तस्य। अत एव यद्यप्यन्यदेशस्थो हेतुर्नान्यदेशस्थसाध्याऽविनाभावी, तथाप्यपक्षधर्मोऽसौ गमको न भवतीत्यस्यार्थस्य 5 ज्ञापनार्थं पृथक् पक्षधर्मत्ववचनं लक्षणे विधेयमिति न वक्तव्यम्, साध्यान्यथानुपपन्नत्वैकरूपप्रतिपत्तेरेव तदर्थस्य लब्धत्वात्। एतेन 'न स त्रिविधाद्धेतोरन्यत्रास्तीति अत्रैव नियत उच्यते' (३३८-१) इत्यपि निरस्तम् यथोक्तप्रकारेण साध्याऽविनाभावित्वस्यैव त्रित्वव्यापकत्वात् तद्विकलस्य तस्य विद्यमानस्याऽप्यकिंचित्करत्वात्। किञ्चित्करत्वेऽप्यविनाभावित्वेकरूपनिर्णयनिमित्ततया दृष्टान्तादिवद् हेत्वनङ्गत्वात् । स्वभावकार्यानुपलम्भकल्पनामन्तरेणाप्यन्यथानुपपत्तिमात्राद्धेतोर्गमकत्वोपपत्ते विनाभावः त्रिसंख्येन हेतुना व्याप्तः। 10 तथाहि- वृक्षाच्छायानुमानं लोके प्रसिद्धम्। न च वृक्षस्तच्छायाकार्य सहभावित्वात्। नापि स्वभावः कारण, चाक्षुषत्व नित्यत्व का नहीं अनित्यत्व का अविनाभावि होता है, तथा शब्द कभी चाक्षुष नहीं होता। फिर यहाँ उक्त दोष को अवकाश ही कहाँ ?
[पक्षधर्मता के विना महासमुद्र में अग्निबोध के आक्षेप का उत्तर ] यह आक्षेप - यदि अग्नि के अविनाभावमात्र से धूम अग्नि का गमक बने तो अत्रस्थ धूम 15 महासमुद्र में भी अग्नि का गमक बन जाय (३७७-१०) - निरस्त हो जाता है। कारणः अन्यदेशस्थ धूम महासमुद्रगतअग्नि का अविनाभावी सिद्ध नहीं है, धूम (हेतु) तो स्वदेशस्थ साध्य का ही अविनाभावी होता है। यदि कहा जाय - ‘इसी लिये तो, यद्यपि अन्यदेशस्थ हेतु भिन्नदेशवृत्तिसाध्य का अविनाभावी नहीं होता, तथापि वह पक्षधर्म यदि नहीं होगा तो गमक नहीं होगा इस तथ्य का प्रकाशन करने के लिये पृथक् पक्षधर्मत्व हेतु का लक्षण करना जरूरी है।' - तो ऐसा मत बोलिये। कारण, हेतु 20 का जो अत्यावश्यक यह रूप है साध्यान्यथानुपपत्ति, उस के ग्रहण में अपृथग्रूप से पक्षधर्मत्व का ग्रहण प्राप्त हो जाता है। यह जो किसीने कहा था - (स्वभावादि) त्रिविध हेतु के सिवा वह (अविनाभाव) नहीं होता अतः वह त्रिविध हेतु में ही नियमतः होता है' (३३८-१०) यह भी पूर्वोक्त विवरण से निरस्त हो जाता है। वास्तव में तो. जैसा कि ऊपर कहा है. त्रित्व अविनाभाव का व्यापक नहीं है किन्तु अविनाभाव ही त्रित्व का व्यापक है। अविनाभाव के विरह में त्रित्व के रहने से भी कोई 25 फायदा नहीं है। कुछ फायदा हो तब भी - जैसे अविनाभाव एकमात्र रूप के निर्णय में दृष्टान्त उपयोगी होने पर भी वह (दृष्टान्त) हेतु का अभ्यन्तर अङ्ग नहीं होता वैसे ही त्रित्व भी उपयोगी होते हुए भी हेतु का अङ्ग नहीं बन सकता। स्वभाव-कार्य-अनुपलम्भ ऐसे तीन भेदों की कल्पना न करने पर भी एकमात्र अन्यथाअनुपपत्ति के बल से हेतु गमक होता है, अतः अविनाभाव त्रिसंख्यकहेतु से व्याप्त नहीं है। देखिये - वृक्ष है तो छाया भी है ऐसा वृक्षहेतुक छाया का अनुमान लोग करते 30 हैं, वृक्ष न तो छाया का कार्य है - क्योंकि वृक्ष और छाया दाये बाये विषाण की तरह सहभावी होते हैं। न तो वृक्ष छाया का स्वभाव है क्योंकि वृक्ष और छाया दोनों का स्वभाव भिन्न भिन्न सुविदित
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