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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ [ उपमानस्य स्वरूपं प्रमाणान्तरत्वं च - नैयायिकमतम् ] ___ नैयायिकास्तु उपमानलक्षणमभिदधति – 'प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनमुपमानम्' (न्या-सू०१-१-६) इति। अत्र 'उपमानम्' इति लक्ष्यनिर्देश: 'प्रसिद्धसाधात् साध्यसाधनम्' इति लक्षणम् 'प्रसिद्धसाधर्म्यात्'
इत्यागमपूर्विका प्रसिद्धिर्दर्शिता। आगमस्तु 'यथा गौस्तथा गवयः' इत्येवम्, प्रसिद्धेन साधर्म्य प्रसिद्धं वा 5 साधर्म्यमिति। साधर्म्यप्रसिद्धेः संस्कारवान् पुरुषः कदाचिदरण्ये परिभ्रमन् समानमर्थं यदा पश्यति तदा
तज्ज्ञानादागमाहितसंस्कारप्रबोधः, ततः स्मृतिः ‘गोसदृशो गवयः' इत्येवंरूपा, स्मृतिसहायेन्द्रियार्थसंनिकर्षण 'गोसदृशोऽयम्' इति ज्ञानमुत्पाद्यते तच्चेन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वात् प्रत्यक्षफलम् तदेवाऽव्यपदेश्यादिविशेषणविशिष्टार्थोपलब्धिजनकत्वाद् गोसारूप्यज्ञानमुपमानम्। न च तत्रैव विषये हेयादिज्ञानोत्पादकत्वेनोपमान
प्रमाणताप्रसक्तिः, हेयादिज्ञानस्येन्द्रियसंनिकर्षजत्वात् तज्जनकत्वेनास्य प्रत्यक्षप्रमाणताप्रसक्तेः । न च शब्देन 10 साधु यथोक्तमुत्पादयदेतच्छाब्दं प्रसज्यते अव्यपदेश्यपदाध्याहारात् । अव्यभिचार्यादिपदानां तु पूर्ववद् व्यवच्छेद्यं
दृष्टव्यम्। युक्त एक अर्थ (गौ) की (उपमान प्रमाणरूप) मति उत्पन्न होती है।।
[ नैयायिकमत में उपमान स्वतन्त्र प्रमाण ] नैयायिकों का उपमान प्रमाण :- न्यायसूत्र में (१-१-६) कहा हैं 'प्रसिद्धसाधर्म्य से साध्य का साधन 15 यह उपमान है।' यहाँ 'उपमान' यह लक्ष्य का निर्देश है, शेष अंश 'प्रसिद्धसाधर्म्य से साध्य का साधन'
यह लक्षण का निर्देश है। 'प्रसिद्ध साधर्म्य' में 'प्रसिद्धि' से यह प्रसिद्धि आगम (आप्तवाक्यअतिदेश) पूर्वक होने का सूचित किया है। आप्तवाक्य है 'जैसा गौ वैसा गवय होता है' इस वाक्य से प्रसिद्ध गौ के साथ साधर्म्य अथवा उस वाक्य से प्रसिद्ध ऐसा साधर्म्य सूचित होता है। उक्त साधर्म्यप्रसिद्धि
संस्कारप्राप्त परुष कभी जंगल में पर्यटन करता हआ गौ के समान अर्थ (गवय) को देखता है। 20 उस अर्थज्ञान से उस को आप्तवाक्य से सिक्त संस्कार का प्रबोधन हुआ। प्रबोधन से 'गौसदृश गवय
होता है' यह स्मरण हुआ। अब इस स्मृति से सहकृत इन्द्रियार्थ संनिकर्ष के द्वारा जो 'यह (गवय) गोसदृश है' ऐसा ज्ञानोत्पादन हुआ वह प्रत्यक्षफल है, क्योंकि इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य है। यही गोसारूप्यज्ञान जो कि प्रत्यक्ष का फल है वही 'उपमान' है क्योंकि अव्यपदेश्यादिविशेषणों से विशिष्ट (सादृश्यविशिष्ट
गवयरूप) अर्थोपलब्धि का जनक है। ऐसा नहीं कहना कि - 'इसी सारूप्यज्ञान में उपमान प्रमाणत्व 25 की अतिव्याप्ति होगी क्योंकि वह स्वविषय में हेयादिबुद्धि रूप प्रमितिफल का उत्पादक है।' - क्योंकि
तब तो हेयादिज्ञानजनकत्व के कारण तो उस में प्रत्यक्षप्रमाणत्व की आपत्ति होगी क्योंकि तो इन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्य होता है। ऐसा नहीं कहना कि - 'आप्तवाक्य रूप शब्द से सहित उक्त ज्ञान को उत्पन्न करता हुआ तो यह शाब्द प्रमाण प्रसक्त होगा' - क्योंकि यहाँ अव्यपदेश्य (शब्दोल्लेखरहित)
पद का अध्याहार है। इस अध्याहृत 'अव्यपदेश्य' पद से ही शाब्द की निवृत्ति हो जाती है। साथ 30 में अव्यभिचारि इत्यादि विशेषण भी यहाँ अपने अपने व्यावर्त्य की निवृत्ति करेंगे - यह भी पूर्ववत्
जान लेना।
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