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खण्ड-४, गाथा-१
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बाह्योऽर्थ इति कथं निराकारता तस्येति वक्तव्यम्, ज्ञानरूपतया बोधस्याध्यक्ष प्रतिभासनात् अर्थस्य च ज्ञानरूपतयाऽप्रतिपत्तेः। न ह्यनहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासेऽहङ्कारास्पदबोधरूपस्येव ज्ञानरूपता युक्ता । यदि त्वहङ्कारास्पदत्वेनार्थस्य प्रतिभासः स्यात् तदा ज्ञानरूपादभिन्नत्वात् तदात्मनः 'अहं घटः' इति प्रतिभासः स्यात् । न चान्यथाभूता प्रतिपत्तिरन्यथाभूतमर्थं व्यवस्थापयितुं शक्ता, प्रतिपत्तिव्यतिरेकेणाप्यर्थव्यवस्थितिप्रसक्तेरतिप्रसक्तिश्च नीलप्रतिपत्तेरपि पीतादिव्यवस्थापनाप्रसङ्गात् ।
___ अथ साकारं विज्ञानमाकारप्रतिनियमात्। तत्प्रतिपत्त्यैवार्थापत्त्या तदाकारतां तज्जनकस्यार्थस्य व्यवस्थापयेदिति प्रतिकर्म व्यवस्था सिद्धयति। निराकारं तु विज्ञानं बोधमात्रतया व्यवस्थितं सर्वार्थान् प्रत्यविशिष्टत्वात् 'नीलस्येदं संवेदनं न पीतस्य' इति प्रतिकर्म व्यवस्थानिबन्धनं न भवेदिति साकारं ज्ञानमभ्युपगन्तव्यम् । असदेतत्- 'सर्वार्थान् प्रति बोधमात्रतया निराकारस्याऽविशिष्टत्वात्' इति हेतोरसिद्धः, निराकारत्वेऽपि चक्षुरादिवृत्त्या बोधस्य तत्रैव नियमितत्वात्। न च नियतत्वं तस्य सर्वार्थेषु, नीलादावेव 10 प्रमेयात्मक मान लेना - अयुक्त है। ऐसा नहीं है कि प्रत्यक्षात्मक प्रतिभास को अपनी प्रमाणरूपता के निर्णय में या अर्थनिर्णय में अन्य किसी प्रमाण की अपेक्षा (यानी अनुग्रह) रखनी पडे। प्रतिभास
से ही अर्थ का व्यवस्थापक होता है. क्योंकि वह साक्षात्कारस्वरूप है। इसी लिये. साक्षात्कारस्वरूप होने से उस का कोई बाधक भी नहीं हो सकता। कहा गया है कि___“प्रमाण को अन्य प्रमाण से न बाध पहुँचता है न तो अनुग्रह । यदि प्रमाण भी अन्य प्रमाण 15 से बाधित होगा तो प्रमाण में अप्रमाण्य प्रसक्त होगा। यदि प्रमाण अन्यप्रमाण से अनुगृहीत होगा तो वह स्वयं (नपुंसक जैसा) असमर्थ यानी निरर्थक बन जायेगा।”
* प्रमाण स्वगत अर्थाकारवेदी नहीं हो सकता * अपने से व्यवच्छिन्न यानी पृथक बाह्य अर्थ के अवभासक प्रमाण को अप्रमाण घोषित करने वाले किसी भी प्रमाण की प्रवृत्ति कभी भी उपलब्ध नहीं है। यदि कहा जाय - ‘प्रत्यक्ष प्रमाण कभी बाह्यार्थावभासी 20 नहीं होता, वह तो बाह्यरूप से भासमान स्वगत अर्थाकार का ही अवभासी होता है, फिर प्रमाण को निराकार कैसे समझा जाय इसका तो जवाब दो ?।' - जवाब यह है कि प्रत्यक्षरूप में बोध का ज्ञानमयस्वरूप ही प्रतिभासित होता है, अर्थ ज्ञानमयस्वरूप भासित नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रमाण में यदि अर्थाकार भासित होता है तो अर्थाकार ज्ञाननिष्ठ होने से अर्थ ज्ञानमय भासित होना जरुरी है - किन्तु वैसा होता नहीं है। 'अहम्' इस तरह के अनुभव का विषय बोधरूप 25 ज्ञान होता है, जब कि 'नाहम्' इस तरह अर्थ का प्रतिभास होता है - तब अर्थ को ज्ञानमय कैसे कहा जाय ? यदि अर्थ का भी 'अहम्' इस तरह प्रतिभास होता है - तब तो वह भी ज्ञान से अभिन्न हो जाने से ज्ञानात्मक घटादि बाह्यार्थ का 'मैं घट हूँ' ऐसा प्रतिभास प्रसक्त होगा। यह नियम मानना चाहिये कि जिस आकार की अनुभूति हो उस के आधार पर उसी आकार के वस्तु स्वरूप की प्रतिष्ठा होगी, उस से विपरीत आकार वाले अर्थ की कभी नहीं। ऐसा नियम नहीं मानेंगे तो 30 फलित यह होगा कि अर्थ प्रतिष्ठा किसी नियत प्रकारवाली अनुभूति को आधीन नहीं है, अत एव वह अनुभूति के विना भी हो जाने की विपदा होगी। दूसरी हानि यह होगी की पीत-रक्तादि की
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