________________
२९४
सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ त्वेन वक्तव्या। तथा, यस्य कारणाद् भिन्नमेव कार्यं तस्य भेदाऽविशेषात् सर्वं सर्वस्मात् कुतो नोत्पद्यते इति चोद्ये योग्यतातो नापरमुत्तरमिति सैवाऽत्राप्यभ्युपगमनीया।
किञ्च, यदि प्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः, स्फटिकाद्यन्तरितवस्तु प्रकाशकं न स्यात्, तद्रश्मीनां विषयं प्रति गच्छतां स्फटिकादिना प्रतिबन्धात्। न च तैस्तस्य ध्वस्तत्वादयमदोषः, तद्व्यवहितवस्तुदर्शनसमये स्फटिकादेर्व्यवधायकस्याऽदर्शनप्रसङ्गात्, तदुपरि व्यवस्थापितस्य चाधारविनाशात् पातप्रसक्तेश्च । न हि परमाणवो दृश्याः कस्यचिदाधारभूता वा अवयविकल्पनावैयर्थ्यप्रसक्तेः । ‘अन्यस्यावयविन आशूत्पत्तेरदोषः' चेत् ? न, तदा तद्व्यवहितस्यादर्शनप्रसक्तेः। तथा च यदा व्यवधायकदर्शनं न तदा व्यवहितदर्शनम् यदा च व्यवहितदर्शनं न तदा व्यवधायकदर्शनमिति प्रसज्येत । न चैवम्, युगपद् द्वयोर्दर्शनात्। अथाशूपत्ते
प्रकाशन क्यों नहीं करते ? तब आप को भी उत्तर में यही कहना पडेगा कि अतिदूरस्थ (एवं 10 अतिनिकटवर्ती) वस्तुओं के पास पहुँचने की उन में योग्यता यानी सामर्थ्य नहीं है, अतिदूर न हो
ऐसे ही पदार्थों तक उन की पहुँच यानी योग्यता रहती है। सिर्फ यहाँ ही नहीं, कारण-कार्यभाव की चर्चा में भी योग्यता का स्वीकार करना ही होगा। देखिये - आप तो कारण-कार्य के एकान्त भेद को स्वीकारते हैं। तब प्रश्न आयेगा - तन्तु कारण से पट एवं घट दोनों ही तुल्यरूप से सर्वथा
भिन्न है, फिर भी तन्तु से पट ही उत्पन्न होता है घट उत्पन्न नहीं होता, कारण क्या है ? किसी 15 भी कारण से किसी भी कार्य की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ? तो उत्तर दूसरा कुछ नहीं, यही आयेगा
कि योग्यता मर्यादित ही होती है। तब प्रस्तुत में चक्षु के अप्राप्यकारिता के संदर्भ में भी वही योग्यता का उत्तर सुचारु है।
[स्फटिकान्तरित वस्तुदर्शन की न्यायमत में अनुपपत्ति ] यह भी सोचने जैसा है - नेत्र यदि प्राप्तार्थप्रकाशक है तो स्फटिक-काचादि से व्यवहित वस्तु 20 का दर्शन नहीं होगा। कारण, विषय के प्रति जाने वाले रश्मियों को स्फटिकादि से रोक लग जायेगी।
यदि कल्पना करें कि - ‘स्फटिकादि का ध्वंस कर के नेत्र के रश्मि आरपार निकल जायेंगे (अहो ! घन से भी नहीं तूटनेवाला स्फटिक, नेत्र के किरणों से तूट जायेगा !) तो विषय के साथ संनिकर्ष होने में कोई दोष नहीं होगा।' – तो नया दोष होगा, ध्वस्त स्फटिक से निकल जानेवाले नयनरश्मियों से विषयवस्तु का दर्शन होगा किन्तु उस समय व्यवधायक स्फटिक का भी साथ साथ समकालीन दर्शन
कध्वंस के कारण नहीं होगा। दसरा दोष. उस स्फटिक के ऊपर से कछ पुष्पादि नीचे गिर जायेंगे। आधारनाश के बाद वहाँ सिर्फ परमाणुपुञ्ज शेष रहा, वह तो दृश्य नहीं है, न तो वे किसी का आधार बन सकते हैं, यदि परमाणुवृंद दृश्य एवं आधार बन बैठेंगे तब तो अवयवी की कल्पना भी (बौद्ध मत की तरह) निरर्थक ठहरेगी, परमाणुपुञ्ज से ही अवयवीसाध्य सभी कार्य सिद्ध
हो जायेंगे। यदि कहें कि - एक अवयवी के नाश के बाद शीघ्र ही नये अवयवी की उत्पत्ति हो 30 जाने से उक्त दोष नहीं होगा। - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि तब तो बार बार किरणों की गति
में रुकावट आ जाने से व्यवहित अर्थ का दर्शन ही नहीं हो सकेगा। नतीजा यह आयेगा कि स्फटिकादि का ध्वंस कर के रश्मि अर्थ के पास पहुंचेंगे तब व्यवधायक स्फटिक का दर्शन नहीं होगा, जब नया
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org