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________________ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - २ नन्वेवमपि रूपादिग्रहणं व्यर्थम् गुणग्रहणेन संगृहीतत्वात् । न विशेषलक्षणप्रतिपादनार्थत्वात्। तथा च प्रतिपादितम् - पृथिव्यादिगुणस्य सतश्चक्षुर्ग्राह्यत्वमेव यस्य तद् रूपम्' 'चक्षुर्ग्राह्यं यत् तद् रूपम्' इत्यभिधीयमाने घटादावतिप्रसक्तिः, तन्निवृत्त्यर्थमवधारणम् । तथापि रूपत्वेऽतिप्रसङ्गः, तन्निवृत्त्यर्थं पृथिव्यादिगुणग्रहणम् एवं रसादिष्वपि । 'एकादिव्यवहारहेतुः संख्या' (प्रशस्त भा. पृ. १११ पं. ३) 5 इत्यादिविशेषलक्षणं वैशेषिकमतप्रसिद्धं सर्वत्र दृष्टव्यम् । नन्वेवं रूपादीनामपि विशेषलक्षणं न वाच्यम् तत्रैव प्रसिद्धत्वात् । न, अविप्रतिपत्तिज्ञापनार्थत्वात् । रूपादयो हि बहुभिर्विषयत्वेन सम्प्रतिपन्ना इति पञ्चानामपि लक्षणाभिधानम् । पुरुषस्य चैतेऽतिशयेनासक्तिहेतवः । एतावत्त्वत्रोपयुज्यते इन्द्रियविषयभूतोऽर्थः अपरोक्षानुभूति उत्पन्न होती हैं ।) इस मत में 'अर्थ' का स्वरूप निर्देश करते हुए यही कहा गया है कि पृथिवी आदि तथा उन के रूपादि गुण ही ( इन्द्रियों के) अर्थ यानी विषय हैं । वहाँ 'अर्थ' शब्द 10 से लक्ष्य का निर्देश किया है और 'तदर्थत्व' यानी 'इन्द्रियार्थत्व' यही अर्थ का लक्षण समझना । प्रश्न :- ' तदर्था:' इस लक्षणकथन के बाद 'पृथिव्यादि गुणाः' ऐसा विशेष कथन करने की क्या आवश्यकता ? २१८ विभाग को दिखाने के उत्तर :- 'तदर्थत्व' लक्षण से जिन को संगृहीत किया गया है उन के लिये 'पृथिव्यादि गुणाः' ऐसा कथन जरूरी है । उद्घोतकर ने भी कहा है 'पृथिव्यादि' शब्द से 15 उपलब्धियोग्य तीन द्रव्यों (पृथ्वी-जल-तेज) का निर्देश है' । 'गुण' शब्द से हमलोगों के लिये उपलब्धि योग्य, आश्रित या विशेषण स्वरूप सभी गुण (संख्या- परिमाण - पृथक्त्व-संयोग-विभाग-परत्व-अपरत्व-स्नेहवेग - क्रिया-जाति- विशेष से आश्रित गुण और विशेषणरूप से समवाय सूचित किये गये हैं । (क्रियाजाति - विशेष और समवाय ये चार द्रव्य के धर्म होने से यहाँ 'गुण' शब्द से परिभाषित हैं ।) इस प्रकार, लक्ष्य पदार्थों के विभागसूत्र का निर्देश 'पृथिव्यादि गुणा:' इस कथन से हुआ है । 20 [ रूपादिउल्लेख की व्यर्थता का निरसन ] पूर्वपक्षी :- फिर भी 'रूपादयस्तदर्था:' इस में रूपादि का ग्रहण निरर्थक है । 'पृथिव्यादि गुणा' इस में 'गुण' शब्द से उन का ग्रहण हो जाता है । उत्तरपक्षी :- नहीं, रूपादि का विशेषलक्षण सूचित करने हेतु 'रूपादि' ग्रहण सार्थक है। ऐसा कहा गया है पृथ्वी आदि (जल और तेज ) द्रव्यों का गुण होते हुये जो 'चक्षु से ही ग्राह्य' होता 25 है वही 'रूप' है । इस के बदले यदि ऐसा लक्षण कहा जाय कि जो 'चक्षु से ग्राह्य होता है वही रूप है' तो घटादि द्रव्य भी चक्षु से ग्राह्य होने से उन में अतिव्याप्ति दोष होगा, उस को हठाने के लिये 'एव' यानी अवधारण (चक्षु से ही ग्राह्य) किया गया | घटादि द्रव्य स्पर्शनेन्द्रिय से भी ग्राह्य होने से सिर्फ चक्षु से ही ग्राह्य हो ऐसा नहीं है । यद्यपि अवधारण करने से घटादि में अतिव्याप्ति का वारण करने पर भी रूपत्व जाति सिर्फ चक्षु से ही ग्राह्य होने से पुनः रूप के लक्षण की रूपत्व 30 में अतिव्याप्ति होगी, उस के वारण के लिये 'पृथिव्यादि गुणाः' यहाँ 'गुण' शब्दप्रयोग किया है, रूपत्व रसादि गुणों के लक्षणों में भी अतिव्याप्ति दोष का वारण हेतु संख्या है' इत्यादि जो विशेष लक्षण प्रशस्तपादभाष्यादि तो जाति है गुण नहीं है। इस प्रकार समझ लेना । 'एक' इत्यादिव्यवहार का Jain Educationa International ― - For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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