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________________ २०२ सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड-२ संकेतस्मरणोपायं दृष्टं सङ्कलनात्मकम् । पूर्वापरपरामर्शशून्ये तच्चाक्षुषे कथम् ।। (प्र.वा.२-१७४) इत्यभिधानम् तदप्यसंगतम् संकेतकालानुभूतशब्दस्मरणमन्तरेणापि व्यवसायात्मकस्य ज्ञानस्याक्षप्रभवस्य प्रतिपादनात्, अन्यथा विकल्पानुत्पत्तेरित्यु क्तत्वात्। तस्मात् पुरोवर्तिस्थिरस्थूलस्वगुणपर्यायसाधारणस्तम्भादिप्रतिभासस्याक्षप्रभवस्य निर्णयात्मनः स्व5 संवेदनाध्यक्षतोऽनुभूतेः स्वार्थनिर्णयात्मकमध्यक्ष सिद्धम् । न चेदं मानसम् एतद्व्यतिरिकेण निरंशैकपरमाणुग्राहिणोऽविकल्पस्य कदाचिदप्यननुभवात् । यदि चायं स्तम्भादिप्रतिभासो मानसो भवेत् विकल्पान्तरतोऽस्य निवृत्तिर्भवेत्, न चैवम्, क्षणक्षयित्वमनुमानानिश्चिन्वतोऽश्वादिकं वा विकल्पयतस्तदैवास्य प्रतिभाससंवेदनात्। ततोऽध्यक्षप्रमाणसिद्धत्वाद् न सविकल्पत्वे साधकप्रमाणाभावः। 10 तथानुमानादपि सविकल्पकत्वमध्यक्षस्य नासिद्धम्। तथाहि- यद् ज्ञानं यद् विषयीकरोति तत् तन्निर्णयात्मकतया, अनुमानमिवाग्न्यादिकम्, विषयीकरोति च स्वार्थमध्यक्षमिति। न चास्याध्यक्षबाधितकर्मनिर्देशानन्तरप्रयुक्तत्वेन कालात्ययापदिष्टत्वम् पक्षस्य चाध्यक्षबाधा; साध्यविपरीतार्थोपस्थापकाध्यक्षस्य बोध संकेत के स्मरण से ही हो सकता है, पूर्वोत्तरभावपरामर्श से शून्य (शब्दअस्पृष्ट वर्तमानमात्रवस्तुग्राहि) चाक्षुष प्रत्यक्ष में वह (संकलनबोध) कैसे हो सकता है ?” – यह भी असंगत है। कारण, अभ्यासदशा 15 में, संकेतकालगृहीत शब्द को याद किये विना भी निर्णयात्मक इन्द्रियजन्यप्रत्यक्षज्ञान सम्भव है इस तथ्य का पहले प्रतिपादन कर आये हैं। यदि इस तथ्य को नहीं मानेंगे तो विकल्प का उद्भव ही अशक्य है यह भी पहले कहा है। इन तथ्यों से यह फलित होता है कि पुरोवर्ती स्थिर स्थूल अपने गुण-पर्यायों से आश्लिष्ट स्तम्भादि का निश्चयात्मक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष स्वप्रकाशसंवेदन से ही अनुभूतिगोचर होने से, प्रत्यक्ष दर्शन स्व एवं अर्थ का निश्चयात्मक होता है यह सिद्ध होता है। [ विवादास्पद स्तम्भादिज्ञान मानस नहीं, अध्यक्ष है ] ऐसा मत कहना कि 'स्तम्भादिज्ञान मानसबोधरूप है न कि प्रत्यक्ष;' प्रत्यक्ष में स्तम्भादिज्ञान नहीं मानेंगे तो उस के विना निरंश-एकपरमाणुमात्रग्राही निर्विकल्प बोध का कभी भी अनुभव न होने से स्तम्भादिज्ञान ही असत् प्रसक्त होगा। यदि स्तम्भादिप्रतिभास को मानसिकबोधरूप मानेंगे तो अन्य विकल्प से उस की निवृत्ति भी मानना पडेगा; लेकिन वैसा होता नहीं है, जब क्षणभंग के अनुमान 25 का निश्चय या अश्वादि के विकल्प का उदय होता है तब ही स्तम्भादि का प्रतिभास भी संविदित होता है। उक्त रीति से, सविकल्प अध्यक्ष स्वसंवेदिप्रत्यक्षप्रमाणसिद्ध होने से 'उस का कोई साधक प्रमाण ही नहीं है' ऐसा नहीं कहा जा सकता। [ अनुमान से सविकल्प में प्रत्यक्षत्वसिद्धि ] प्रत्यक्ष की तरह अनुमान से भी सविकल्पक के प्रत्यक्षत्व की सिद्धि कठिन नहीं है। देखिये - 30 वस्तु को विषय करनेवाला कोई भी ज्ञान ‘निर्णयात्मक' ही होता है जैसे अग्निआदि को विषय करनेवाला अनुमान । प्रत्यक्ष भी अपने संनिकृष्ट अर्थ को विषय करता है अत एव वह निर्णयात्मक (यानी सविकल्प) होता है। - "इस प्रयोग का साध्य 'निर्णयत्व' प्रत्यक्ष से ही बाधित होने के बाद 'विषयीकारित्व' हेतु Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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