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________________ ८७ खण्ड-४, गाथा-१ अपरमनुमानम् तर्हि ज्ञानजन्यत्वाविशेषेऽपि किञ्चिज्ज्ञानम् अपरोऽर्थ इति किं न स्यात् ? ततश्च ‘नीलादि ज्ञानं, ज्ञानकार्यत्वात्, उत्तरज्ञानवत्' इत्ययुक्ततया व्यवस्थितम् । __यदपि - 'यया प्रत्यासत्त्या स्वरूपं विषयीकरोति ज्ञानं तयैव चेद् अर्थम् तयोरैक्यप्रसक्तिः; न ोकस्वभाववेद्यमनेकं युक्तम् अन्यथैकमेव न किञ्चिद् भवेत्। अथान्यथा(?या) स्वभावद्वयापत्तिर्ज्ञानस्य भवेत् तदपि च स्वभावद्वयं यद्यपरेण स्वभावद्वयेनाधिगच्छति तदाऽपराऽपरस्वभावद्वयापेक्षणादनवस्था, अन्यथा 5 स्वार्थयोरपि तदपेक्षा न स्यात्। स्वसंवेदनलक्षणत्वाच्च ज्ञानस्य नाऽसंविदितं रूपं युक्तम्' इत्युक्तम्पुनः उस अन्य उपादान के लिये प्रश्न, उस के उत्तर में अन्य उपादान... इस तरह अनवस्था प्रसंग खडा होगा। ___ यदि कहें कि लिङ्ग की तरह अनुमानरूप प्रतीति लिङ्गजन्य होने पर भी अपने आप ही यह विभाग बन जाता है कि एक लिङ्गरूप होता है जब कि दूसरा अनुमान। तो ज्ञान एवं नीलादि 10 के भेदपक्ष में क्यों नहीं कहते कि ज्ञान एवं अर्थ दोनों में समान रूप से (अभ्युपगमवाद से) ज्ञानजन्यत्व रहने पर भी एक ज्ञानात्मक होता है तो दूसरा अर्थरूप। निष्कर्ष, ‘नीलादि अर्थ ज्ञानात्मक है क्योंकि ज्ञान का कार्य है, जैसे ज्ञानजन्य उत्तरकालीनज्ञान' - ऐसा अनुमान गलत है क्योंकि ज्ञानकार्यत्व होने पर भी उपरोक्त रूप से कोई ज्ञानेतर अर्थरूप हो सकता है यानी हेतु साध्यद्रोही है। 15 * स्वसंवेदनपक्ष में ऐक्यादिआपत्ति का निरूपण * यह जो बौद्धने कहा है - जिस प्रत्यासत्ति से ज्ञान अपने आप को विषय करता है उसी प्रत्यासत्ति के द्वारा यदि वह अर्थ को भी विषय करता है तो ज्ञान और अर्थ में अभेद सिद्ध हो जायेगा, क्योंकि जो एक स्वभाव (प्रत्यासत्ति) से ग्राह्य बनते हैं उन में अनेकता नहीं, अभेद होता है, जैसे घट और उस का स्वरूप। यदि अभेद नहीं, अनेकता को मानेंगे तो कहीं भी यानी घट और उसके 20 स्वरूप में भी एकता को अवकाश नहीं रहेगा, जैसे घट और पटस्वरूप। यदि ज्ञान अपने स्वरूप का और अर्थ का भिन्नप्रत्यासत्ति (यानी भिन्न स्वभाव) से वेदन करेगा तो ज्ञान में स्वभावयुगल से भिन्नता प्रसक्त होगी। दूसरा अनवस्था दोष ऐसे होगा, उन दो स्वभावों के अवबोध के लिये भी (यानी ज्ञान जब अपने स्वरूप को विषय करेगा तब स्वरूप दो स्वभावात्मक होने से उन दोनों को विषय करने के लिये) अन्य दो स्वभाव मानना पडेगा। उन दो के लिये और अन्य दो स्वभाव... 25 इस तरह नये नये दो दो स्वभावों की अपेक्षा खडी होने से अनवस्था प्रसक्त होगी। यदि दूसरेतीसरे स्वभावयुगल को तीसरे चौथे की अपेक्षा न मानेंगे तो फिर स्व एवं अर्थ के ग्रहण के लिये स्वभावयुगल की अपेक्षा (यानी प्रत्त्यासत्ति की अपेक्षा) भी क्यों मानी जाय ? यदि अपने स्वभाव के संवेदन को असंविदित ही मान ले तो यह संभव नहीं है क्योंकि आप तो ज्ञान को स्वसंविदित स्वरूप ही मानते हैं, अतः उस में अपना स्वभाव असंविदित रह जाय ऐसा कैसे मान सकते हैं?- 30 * ऐक्यादि आपत्ति का निरसन * बौद्धों का यह कथन भी निरस्त है। कारण, लिङ्ग के द्वारा स्वसमानकाल में अनुमिति करने Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003804
Book TitleSanmati Tark Prakaran Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaydevsuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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