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सन्मतितर्कप्रकरण-काण्ड - १
अथ भावान्तरमेव प्रध्वंसाभावः नापरः तत् कथं काष्ठादेस्तथोपलब्ध्यादिप्रसङ्गः ? नैतदेवम्- यतः 'काष्ठादेरङ्गारादिरेव ध्वंसो नाऽपरः' इत्यत्र किञ्चिन्निबन्धनं वाच्यम् । 'तस्मिन् सति तन्निवृत्तिरिति चेत् ? न, तुच्छस्वभावनिवृत्त्यनङ्गीकरणेऽङ्गारादिकमेवार्थान्तरं निवृत्तिशब्देनोक्तम् । ततश्चायं वाक्यार्थः- अङ्गारादिभावभावात् काष्ठादेरङ्गारादिकं ध्वंस इति । न चाङ्गारादिभावेऽङ्गारादिर्भावः स्वात्मनि हेतुत्वविरोधात् 5 अप्रस्तुताभिधानं च प्रसक्तम् अस्त्या ( ? ग्न्या) दिभ्यस्तदुत्पादाभिधानात् । काष्ठादीनां निवृत्तो प्रस्तुतायामर्थान्तरविधाने तेषामनिवर्त्तनात् ।
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यदप्यभ्यधायि (११-८) 'बुद्धिप्रदीपादयो येऽप्यनु ( प ) जातविकारा ध्वंसमासादयन्ति तेऽप्यात्माऽव्यक्तरूपा (पतां) विकारान्तरमेव ध्वंसमनुभवन्ति' इति, तदप्यसङ्गतम्, बुद्ध्यादीनामात्मरूपविकारापत्तौ प्रमाणाभावात्, आत्मनश्चाऽसत्त्वात् कथं तद्रूपता बुद्ध्यादीनां विकारः ? ' न च परिणामः सम्भवति' 10 इति प्राक् प्रतिपादितम् । प्रदीपादेस्तु अव्यक्तभावः कार्यदर्शनानुमेयः तस्यातीन्द्रियत्वात् । न च ध्वस्तस्य रहेंगे यह प्रसंग अनिष्ट होगा । पुनः पुनः अग्नि आदि से नये नये ध्वंस की उत्पत्ति चलती रहेगी तो अनवस्था दोष होगा ।
यदि कहें 'काष्ठादि का ध्वंस तुच्छ नहीं किन्तु उत्तरभाव ( भस्मादि) रूप हैं, अतः भस्मादि ही उपलब्ध होंगे, काष्ठादिउपलब्धि तदवस्थ होने का प्रसंग कैसे होगा ?'
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यह भी यथार्थ नहीं है । कारणः काष्ठादि का ध्वंस अंगारादिस्वरूप ही है अन्यस्वरूप नहीं ऐसा मानने के लिये कोई आधार कहना चाहिये । यदि 'काष्ठादि के रहने पर अंगारादि निष्पन्न होते हैं' ऐसा अन्वयप्रसंग दिखायेंगे तो वह ठीक नहीं है क्योंकि निवृत्ति या ध्वंस को तुच्छस्वरूप न मान कर आपने तो अर्थान्तर रूप अंगारादि ( या भस्मादि) को ही निवृत्तिशब्द से स्वीकार लिया । फलस्वरूप वाक्यार्थ यह हुआ काष्ठादि के रहने पर ही अंगारादिभाव का भाव (सत्ता) होने के कारण अंगारादि ही उस का ध्वंस है । 'अंगारादि 20 भाव से ही अंगारादिभाव का उद्भव' नहीं हो सकता क्योंकि स्व-उद्भव के लिये तब स्व में ही उत्पादनानुकूल क्रिया मानने में हेतुत्व के साथ स्पष्ट विरोध प्रसक्त होगा । तथा ऐसा कहना यहाँ बिनजरूरी होने से अप्रस्तुतता भी होगी । कैसे यह देखो अग्नि आदि से उस का उद्भव कह देने के बाद काष्ठादि की निवृत्ति की बात प्रस्तुत में चल रही है तब आप अंगारादि के उद्भव की बात पर चल गये तो काष्ठादिनिवृत्ति तो रुक जायेगी ।
आत्मा के अव्यक्तविकाररूप बुद्धिध्वंस अमान्य ]
यह जो कहा था— (११ - २६ ) (जिन का ध्वंस भस्मादिव्यक्तविकारप्रदर्शक नहीं होता ऐसे बुद्धि अथवा दीपकादि पदार्थ का जो ध्वंस होता है उन का व्यक्त नहीं किन्तु अव्यक्त भी विकार तो होता है जो आत्मा से अभिन्न ही होता है ।' वह तो गलत ही है । बुद्धि आदि का स्वअभिन्न विकार होता है इस कथन में कोई समर्थक प्रमाण नहीं । आत्मा भी सत् नहीं है तो बुद्धि आदि का आत्मा 30 से अभिन्न विकार की तो कथा ही क्या ? आत्मा न होने से उस के परिणाम की कथा भी व्यर्थ यह पहले कहा जा चुका है । बुद्धि की तरह प्रदीप का अव्यक्तभावरूप ध्वंस भी अघटित ही 4. पूर्वमुद्रितपुस्तके द्वाविंशतिटीप्पणगतं पाठान्तरं स्वीकृतमत्र ।
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